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मदन मोहन" मैत्रेय

@केशव

नाम-मदन मोहन "मैत्रेय पिता-श्री अमर नाथ ठाकुर रतनपुर अभिमान, दरभंगा, बिहार रतनपुर 847307 आप की पुस्तक कविता संग्रह "वैभव विलास-काव्य कुंज""भीगी पलकें" एवं "अरुणोदय" तथा उपन्यास "फेसबुक ट्रैजडी" "ओडिनरी किलर" एवं "तरुणा" पेपर बैक में प्रकाशित हो चुकी है। तथा आप अभी "भक्ति की धारा-एकाकार विश्वरुप स्वरुप" पर कार्य कर रहे हैं।

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भक्ती की धारा-संभवा एकाकार स्वरुप विश्वरुप"....(पूर्ण पुस्तक)

जीवन तो ईश्वर प्रदत्त है, परन्तु हम जगत के प्राणी इसको अपना समझ बैठे है। हम इस शरीर को अपना समझ बैठे है, जो नाशवान है। पता नहीं कि कब यह शून्य हो जाये, कब शिथिल हो जाए। जैसे ही इसमें से आत्मा निकल जाती है, सड़न पैदा होने लगती है। यह मानव का शरीर बेकार हो जाता है, क्योंकि यह कचरे का ढेर ही तो है। बस हम, यानी कि आत्मा, इसमें है इसलिये चलायमान है। तो फिर हम घमंड क्यों करें, हम अपने आप को पाप कर्मों से क्यों नहीं बचाए। हम उन कमल नयन नारायण की आराधना क्यों नहीं करें। आपको इसी जीवन से संदर्भीत आचरणों को और नाम महिमा को बताने के लिए अजामील की कथा बताता हूं।

            अजामील कान्यकुब्ज (प्राचीन कन्नौज) निवासी एक ब्राह्मण था। वह गुणी भी था और समझदार भी। उसने वेद-शास्त्रों का विधिवत अध्ययन प्राप्त किया था। अपने यहाँ आने वाले गुरुजन, संत तथा अतिथियों का सम्मान भी वह श्रद्धा पूर्वक करता था। इसके साथ ही वह उनसे ज्ञान चर्चा भी किया करता था। उसके घर में नित्यप्रति देव पूजन, यज्ञ तथा ब्राह्मण भोजन कराया जाता था। पूजन विषयक समस्त व्यवस्थाएँ स्वयं अजामील देखा करता था। वह प्रयास करता था कि पूजन में प्रयुक्त होने वाली सामग्री फल-फूल तथा समिधाएँ पवित्र और श्रेष्ठ हों। वह वन तथा उपवन में जाकर इन समाग्रियों को एकत्र करता था।

                    एक दिन अजामील वन से पूजन सामग्री एकत्रित कर घर लौट रहा था, तो उसने देखा एक कुंज में कोई युवक स्त्री के साथ प्रेम में लिप्त था। अजामील ने संस्कार वश अपने आपको यह देखने से रोकने का पूरा प्रयत्न किया, किन्तु सफल न हो सका। वह बार-बार इस प्रेम प्रसंग को देखकर आनंदित होने लगा। बाद में उसने स्त्री से परिचय प्राप्त किया। यह ज्ञात होने पर कि वह वेश्या है, अजामील प्रतिदिन उसके यहाँ जाने लगा। संसर्ग से धीरे-धीरे उसके सत्कर्म प्रभावित होने लगे और वह वेश्या की प्रत्येक कामना की तुष्टि के लिए तरह-तरह के दुष्कर्मों में लिप्त होता गया। उसने चोरी, डकैती और लूट-पाट शुरू कर दिए। हत्याएँ करने लगा तथा किसी भी प्रकार से धन प्राप्ति हेतु अन्यायपूर्ण कर्म करके उसे संतुष्टि प्राप्त होने लगी। स्थिति यह हुई कि वेश्या से अजामील को नौ पुत्र प्राप्त हुए तथा दसवीं सन्तान उसकी पत्नी के गर्भ में थी।

                       संयोग बस एक दिन कुछ संतों का समूह उस ओर से गुजर रहा था। रात्रि अधिक होने पर उन्होंने उसी गांव में रहना उपयुक्त समझा, जिसमें अजामील रहता था। गाँव बालों से आवास और भोजन के विषय में चर्चा करने पर गाँव बालों ने मजाक बनाते हुए साधुओं को अजामील के घर का पता बता दिया। संत समूह अजामील के घर पहुँच गए। उस समय अजामील घर पर नहीं था। गाँव बालों ने सोचा था कि आज ये साधु निश्चित रूप से अजामील के द्वार पर अपमानित होंगे तथा इन्हें पिटना भी पड़ेगा। आगे से ये स्वयं ही कभी इस गाँव की ओर कदम नहीं रखेंगे। संत मंडली ने उसके द्वार पर जाकर राम नाम का उच्चारण किया। घर में से उसकी वही वेश्या पत्नी बाहर आई और साधुओं से बोली- "आप शीघ्र भोजन सामग्री लेकर यहाँ से निकल जायें अन्यथा कुछ ही क्षणों में अजामील आ जायेगा और आप लोगों को परेशानी हो जायेगी।" उसकी बात सुनकर समस्त साधु गण भोजन की सूखी सामग्री लेकर उसके घर से थोड़ी ही दूरी पर एक वृक्ष के नीचे भोजन बनाने का उपक्रम करने लगे। भोजन बना, भोग लगा और संतों ने जब पा लिया, तब विचार किया कि यह भोजन किसी संस्कारी ब्राह्मण कुलोत्पन्न के घर का है। किन्तु समय के प्रभाव से यह कु-संस्कारी हो गया है।

             सभी संत पुन: फिर से अजामील के घर पहुँचे। उन्होंने बाहर से आवाज़ लगाई। अजामील की स्त्री बाहर आई। संतों ने कहा- "बहन हम तुमसे एक बात कहने आये हैं।" स्त्री ने बताने के लिए कहा। संतों ने कहा- "तुम्हारे यहाँ जन्म लेने वाले शिशु का नाम 'नारायण' रखना।" संत गणो के ऐसा कहने पर अजामील की स्त्री ने उन्हें ऐसा ही करने का वचन दिया। अजामील की स्त्री ने दसवीं सन्तान के रूप में एक पुत्र को ही जन्म दिया, और उसका नाम 'नारायण' रख दिया। नारायण सभी का प्रिय था।

                    अब अजामील स्त्री और अपने पुत्र के मोह जाल में लिपट गया। कुछ समय बाद उसका अंत समय भी नजदीक आ गया। अति भयानक यमदूत उसे दिखलाई पड़े। भय और मोह वश अजामील अत्यंत व्याकुल हुआ। अजामील ने दुःखी होकर नारायण! नारायण! पुकारा। भगवान का नाम सुनते ही विष्णु पार्षद उसी समय उसी स्थान पर दौड़कर आ गए। यमदूतों ने जिस फाँसी से अजामील को बांधा था, पार्षदों ने उसे तोड़ डाला। तब यमदूतों ने कहा कि इस पापी अजामील ने शास्त्राज्ञा का उल्लंघन करके स्वच्छंद आचरण किया है। इसने अनको वर्षों तक वेश्या के मल-समान अपवित्र अन्न से अपना जीवन व्यतीत किया है। इसका सारा जीवन पाप मय है और इस पापी के पापों का प्रायश्चित दंड पाणि भगवान यमराज के पास नरक यातनाएँ भोगकर ही होगा।

                    यमदूतों की बातें सुनकर भगवान के पार्षदों ने कहा- यमदूतों! इसने कोटि जन्म की पाप राशि का पूरा-पूरा प्रायश्चित कर लिया है क्योंकि इसने विवश हो कर ही सही, भगवान के परम कल्याण मय नाम का उच्चारण किया है। जिस समय इसने ‘नारायण’ इन चार अक्षरों का उच्चारण किया, उसी समय इस पापी के समस्त पापों का प्रायश्चित हो गया। भगवन नाम उच्चारण बड़े से बड़े पाप को काटने की सामर्थ्य रखता है क्योंकि भगवान के नाम के उच्चारण से मनुष्य की बुद्धि भगवान के गुण, लीला और स्वरूप में रम जाती है और स्वयं भगवान की भी उसके प्रति आत्मीय बुद्धि हो जाती है।

                        संकेत में, परिहास में, तान अलापने में अथवा किसी की अवहेलना करने में भी यदि कोई ‘नाम’ उच्चारण करें तो उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य गिरते समय, पैर फिसलते समय, अंग भंग होते समय, साँप के डसते समय, आग में जलते समय व चोट लगते समय भी विवशता से ‘हरि-हरि’ कहकर भगवान के नाम का उच्चारण कर लेता है, वह यम यातना का पात्र नहीं रह जाता।

                        यमदूतों! जैसे जाने या अनजाने में ईंधन से अग्नि का स्पर्श हो जाए तो वह भस्म हो ही जाता है, वैसे ही जान बूझकर या अनजाने में, भगवान के नामों का संकीर्तन करने से मनुष्य के सारे पाप भस्म हो जाते हैं। जैसे कोई परम शक्तिशाली अमृत को उसका गुण न जान कर अनजाने में पी ले, तो भी अमृत उसे अमर बना ही देता है वैसे ही अनजाने में उच्चारण करने पर भी भगवान का नाम अपना फल देकर ही रहता है। अजामील ने श्री भगवान का नाम नारायण का उच्चारण किया है अतः यमदूतों तुम अजामील को मत ले जाओ।

                      यमदूत नहीं माने। वे अजामील को पापी समझकर अपने साथ ले जाना चाहते थे। तब पार्षदों ने यमदूतों को डांटकर वहाँ से भगा दिया। हारकर सब यमदूतों ने यमराज के पास जाकर पुकार की। तब धर्मराज ने कहा कि "तुम लोगों ने बड़ा नीच काम किया है। तुमने बड़ा अपराध किया है। अब सावधान रहना और जहाँ कहीं भी, कोई भी किसी भी प्रकार से भगवान के नाम का उच्चारण करें, वहाँ मत जाना।" यमराज ने यमदूतों से कहा "अपने कल्याण के लिए तुम लोग स्वयं भी 'हरी' का नाम और यश का गान करो।

             इधर अजामील ने यमदूतों व विष्णु दूतों के सारे संवाद को देखा व सुना। वह यमदूतों के फंदे से छूटकर निर्भय व स्वस्थ हो गया। सर्व पाप हारी भगवान की महिमा सुनने से अजामील के हृदय में शीघ्र ही भक्ति का उदय हो गयी। उसे अपने जीवन पर बहुत पश्चाताप होने लगा। उसके हृदय में संसार के प्रति तीव्र वैराग्य होने लगा। अजामील सब के संबंध और मोह को छोड़कर हरिद्वार चला गया। योग मार्ग व आत्म चिंतन का आश्रय लेकर अजामील ने इन्द्रिय, मन व बुद्धि को विषयों से पृथक कर भगवान में लीन कर दिया। तब उसने देखा कि उसके सामने वही चारों विष्णु दूत खड़े हैं, जिन्हें उसने पहले देखा था। अजामील ने सर झुका कर उन्हें नमस्कार किया। उनका दर्शन पाने के बाद अजामील ने उसी तीर्थ हरिद्वार में गंगा के तट पर अपना शरीर त्याग दिया और तत्काल भगवान के पार्षदों के साथ स्वर्णमय विमान पर आरूढ़ होकर आकाश मार्ग से भगवान लक्ष्मीपति के निवास स्थान वैकुंठ को चला गया।

संत हृदय, साधु और ऋषि- मुनि कहते है। इतना ही नहीं धर्म ग्रंथ भी कहती है कि भगवान की शरण में रहने वाले भक्तों के पाप श्री भगवान के नामों उच्चारण से ऐसे नष्ट हो जाते हैं जैसे सूर्य उदय होने पर कोहरा नष्ट हो जाता है। जिन्होंने अपने भगवद् गुण अनुरागी मन मधुकर को भगवान श्री कृष्ण के चरणारविंद मकरंद का एक बार पान करा दिया; उन्होंने सारे प्रायश्चित कर लिए। वे स्वप्न में भी यमराज और उनके पाश धारी दूतों को नहीं देखते। कमल नयन पद्धनाभ हरि का जो हो जाता है, उसे नरक लोक की यातना कभी भी नहीं सताती।

                       यह तो कथा प्रसंग है, परन्तु गोस्वामी तुलसी दास ने तो यहां तक कह दिया है-: कहां लगि करहूं नाम बराई, राम न सकही नाम गुण गाई। फिर भी हम जड़ जीव उन ईश्वर तत्व से नाता तोड़ कर मिथ्या जगत के मोह में फंसे रहते है। यह जगत जो है, नाटक का मंच है और हम सब अदाकार। बस यहां आने के बाद हमें अभिनय करना है और अभिनय खतम होते ही इस रंगमंच को छोड़ कर चले जाना है। फिर किस बात का अभिमान, जब हम जो सांस लेते है, वही अपना नहीं है। मैं फिर से कहता हूं कि हम-आप जगत में आए है, तो जगत के धर्मों का निर्वाह जरूर करें। इस संसार के ऐश्वर्य का जरूर ही उपभोग करें। परन्तु अपना मानवीय धर्म नहीं भूले। हम नारायण को नहीं भूले।

                       हमें भगवान के नामों का करतल ध्वनि से कीर्तन करना चाहिए। हमें श्री हरि के मोहक स्वरूप का ध्यान करना चाहिए। हम चाहे भगवान के जिस भी रुपों की आराधना करें, उनके चाहे जिस नामों का उच्चारण करें ।परन्तु उनकी शरणागति जरूर स्वीकार करें। हम जगत में जरूर रहे, परन्तु जगत के गुणों को अपने ऊपर हावी नहीं होने दे। हमें अपने आचरण को विशुद्ध बनाना चाहिए। हमें अपने आप को नारायण के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। यही तो जीवन है और इसकी यही सार्थकता है, कि हम नारायण के हो जाए।

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भक्तों की कथा कहने का उद्देश्य सिर्फ इतना है कि हम जाने, हम समझे कि जो नारायण का हो जाता है। नारायण किस प्रकार से उसके हो जाते है। इसी क्रम में मैं आज आपको राजा अंबरीष की कथा सुनाता हूं।-

राजा नाभाग के अंबरीष नामक एक प्रतापी पुत्र थे। वे बड़े वीर, बुद्धिमान व तपस्वी राजा थे। वे जानते थे कि जिस धन-वैभव के लोभ में पड़कर प्राणी घोर नरक में जाते हैं वह कुछ ही दिनों का सुख है, इसलिए उनका मन सदैव भगवत भक्ति व दीनों की सेवा में लगा रहता था। राज्याभिषेक के बाद राजा अंबरीष ने अनेक यज्ञ करके भगवान विष्णु की पूजा-उपासना की जिन्होंने प्रसन्न होकर उनकी रक्षा के लिए अपने ‘सुदर्शन चक्र’ को नियुक्त कर दिया।

                      राजा अंबरीष भगवान के ऐसे भक्त थे कि वे हमेशा नारायण और नारायण की सेवा में ही लगे रहते थे। उनके भक्ति परायणता की सुगंध तीनों लोकों में फैलने लगी थी। एक बार की बात है, राजा अंबरीष के पास देवर्षि नारद आए। भक्त अंबरीष ने उनकी षोडशोपचार विधि से पुजा अर्चना की। फिर दोनों में बातें होने लगी। तभी राजा अंबरीष की नजर नारद जी के हाथों पर गई। जिसमें पीले रंग की डायरी थी। सहज ही राजा ने आश्चर्य चकित होकर देवर्षि से पुछा.......देवर्षि यह क्या है? राजा की बातें सुनकर देवर्षि मुस्करा कर बोले।...हे भक्त राज अंबरीष.....इसमें उनका नाम है, जो नारायण की भक्ति करते है।

                       अति उत्सुकता बस राजा अंबरीष ने वह डायरी ली और देखा। उस डायरी में उनका नाम कहीं नहीं था। उदास हो गए राजा अंबरीष...उनके मन में ग्लानि होने लगी। उनको लगने लगा कि शायद अभी भक्ति में कमी है। मैं कमल नयन नारायण का पूर्ण रुप से सेवक नहीं बन पाया हूं। नारद जी राजा अंबरीष के हृदय की पीड़ा समझ गए, परन्तु उन्होंने कुछ नहीं बोला। वे चले गए आगे भ्रमण करने को। ठीक कुछ दिनों बाद देवर्षि फिर राजा अंबरीष के पास आए। इस बार नारद जी के हाथों में लाल डायरी थी। भक्त राज ने उनका फिर से षोडशोपचार विधि से पुजा किया और फिर से वही सवाल।

                              नारद जी मुस्करा कर बोले, हे भक्त राज, इसमें उनका नाम है, जिनका भजन नारायण अपने श्री मुख से करते है। इसमें उनका नाम है, जिनकी भक्ति भक्त वत्सल श्री हरि खुद करते है। सुनकर सहज ही राजा अंबरीष को उत्सुकता हुई। उन्होंने डायरी लिया और देखा, प्रथम पन्ने पर ही सब से ऊपर राजा अंबरीष का नाम था। बस इतना देखना था कि राजा अंबरीष विह्वल होकर रोने लगे। उनके आँखों से अश्रु धारा बहने लगी। हृदय में श्री हरि के भक्त वत्सलता पर प्रेम का आवेग प्रवाहित होने लगा। नारद जी उनके हृदय की हालत जानते थे, परन्तु उन्होंने कुछ कहा नहीं। भक्त अंबरीष को उसी हालत में छोड़ कर नारद जी आगे भ्रमण के लिए निकल पड़े। जबकि अंबरीष हरि प्रेम में डूब गए।

                      भक्त राज अंबरीष की कुल सौ ब्याहता थी। ऐसा नहीं था कि उन्होंने इच्छा से इतने ब्याह किए थे। परन्तु राज कुमारियों के आग्रह पर उनको इतना ब्याह करना पड़ा था। परन्तु राजा अंबरीष, अपने किसी पत्नी के पास नहीं जाते थे। उन्होंने तो किसी का मुख भी नहीं देखा था। एक दिन की बात है, जब राजा पुष्प चुनने गए, छोटी रानी ने चौका- वर्तन कर दिया। वापस लौटने पर राजा ने देखा, तो आश्चर्य चकित हुए। पुछा, तो पता चला की छोटी रानी ने किया है, वे भी नारायण की भक्ति करना चाहती है। राजा अंबरीष प्रसन्न हुए, उन्होंने छोटी रानी के लिए श्री हरि का मंदिर बनवा दिया। अब तो राजा नित्य प्रति ही छोटी रानी के पुजा में सम्मिलित होते। बाकी रानियों ने जब देखा कि महाराज मंदिर के बहाने छोटी रानी के पास जाते है, उन्होंने भी राजा के सामने श्री हरि के भक्ति करने की इच्छा व्यक्त की।

                                     इस प्रकार से बाकी रानियों के लिए भी नारायण के मंदिर का निर्माण हो गया। अब तो राजा अंबरीष भगवान की सेवा करने के बाद जो समय बचता था, इन मंदिरों में दर्शन करने में बीतने लगा। ऐसा ही बहुत दिनों तक चलता रहा। भले ही उनकी पत्नियां ईर्ष्या बस ही सही, ईश्वर की ओर उन्मुख हो गई। फिर तो राजा अंबरीष का महल साक्षात वैकुंठ ही हो गया। राजा अंबरीष भगवान के प्रिय और प्रिय होते गए, ठाकुर जी के और नजदीक होते गए।

                            एक बार अंबरीष ने अपनी पत्नी के साथ द्वादशी प्रधान एकादशी व्रत करने का निश्चय किया। वे एक वर्ष पर्यंत एकादशी व्रत किए। इसके बाद  उन्होंने हरिद्वार आकर यज्ञ किया, भगवान विष्णु का पूजन किया और ब्राह्मणों को अन्न-धन का भरपूर दान दिया। इधर उनके तप का प्रभाव तीनों लोकों में फैल चुका था। स्वाभाविक ही था कि देवलोक में भी उनके धर्म की चर्चा हो। देवलोक में मौजूद दुर्वासा ऋषि उनके गुणगान से ईर्ष्या से जलने लगे। अतः उन्होंने राजा अंबरीष की परीक्षा लेने की ठान ली और दुर्वासा हरिद्वार पहुंच गए। वे परम तपस्वी व अलौकिक शक्तियों से युक्त थे किंतु क्रोधी स्वभाव के कारण उनकी सेवा-सुश्रुसा में विशेष सावधानी अपेक्षित थी।

                 अंबरीष ने उनका स्वागत किया और उन्हें श्रेष्ठ आसन पर बिठाया। तत्पश्चात दुर्वासा ऋषि की पूजा करके उसने प्रेम पूर्वक भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया। दुर्वासा ऋषि ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया। किंतु भोजन से पूर्व नित्य कर्मों से निवृत्त होने के लिये वे गंगा नदी के तट पर चले गये। वे पर ब्रह्म का ध्यान कर गंगा के जल में स्नान करने लगे। वे तो इसलिये ही तो आए थे कि किसी प्रकार से राजा अंबरीष को धर्म से भ्रष्ट करना था। इस कारण से उन्होंने जान-बुझ कर समय यूं ही व्यर्थ में गंवाने लगे।

                इधर द्वादशी केवल कुछ ही क्षण शेष रह गयी थी। स्वयं को धर्मसंकट में देख राजा अंबरीष ब्राह्मणों से परामर्श करते हुए बोले – “मान्यवरों ! ब्राह्मण को बिना भोजन करवाए स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते भोजन न करना – दोनों ही मनुष्य को पाप का भागी बनाते हैं। इसलिये इस समय आप मुझे ऐसा उपाय बताएँ, जिससे कि मैं पाप का भागी न बन सकूँ। ब्राह्मण बोले – “राजन ! शास्त्रों में कहा गया है कि जल के साथ तुलसी दल भोजन करने के समान है भी और समान नहीं भी है। इसलिये इस समय आप तुलसी दल डाला हुआ जल पी कर द्वादशी का नियम पूर्ण कीजिये।” यह सुनकर अंबरीष ने जल पी लिया और दुर्वासा ऋषि की प्रतीक्षा करने लगे।

           इधर दुर्वासा ऋषि ने तपोबल से जान लिया कि अंबरीष भोजन कर चुके हैं। उनका एकादशी व्रत पूर्ण हो चुका है। अतः वे क्रोधित हो उठे और क्रोध में राजा अंबरीष के पास पहुंच कर कटु स्वर में बोले – “ दुष्ट अंबरीष ! तू धन के मद में चूर होकर स्वयं को बहुत बड़ा मानता है। तूने मेरा तिरस्कार किया है। मुझे भोजन का निमंत्रण दिया लेकिन मुझसे पहले स्वयं भोजन कर लिया। अब देख मैं तुझे तेरी दुष्टता का दंड देता हूँ। इतना कहने के बाद क्रोधित दुर्वासा ने अपनी एक जटा उखाड़ी और अंबरीष को मारने के लिए एक भयंकर और विकराल कृत्या उत्पन्न की। कृत्या तलवार लेकर अंबरीष की ओर बढ़ी किंतु वे बिना विचलित हुए मन ही मन भगवान विष्णु का स्मरण करते रहे। जैसे ही कृत्या ने उनके ऊपर आक्रमण करना चाहा; अंबरीष का रक्षक सुदर्शन चक्र सक्रिय हो गया और पल भर में उसने कृत्या को जलाकर भस्म कर दिया।

         जब दुर्वासा ऋषि ने देखा कि चक्र तेजी से उन्हीं की ओर बढ़ रहा है तो वे भयभीत हो गये। अपने प्राणों की रक्षा के लिए वे आकाश, पाताल, पृथ्वी, समुद्र, पर्वत, वन आदि अनेक स्थानों पर शरण लेने गये किंतु सुदर्शन चक्र ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। घबराकर उन्होंने ब्रह्मा जी से रक्षा की गुहार लगायी। ब्रह्मा जी प्रकट हुए किंतु असमर्थ होकर बोले, “वत्स, भगवान विष्णु द्वारा बनाये गये नियमों से मैं बँधा हुआ हूँ। प्रजापति, इंद्र, सूर्य आदि सभी देव गण भी इन नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकते। हम नारायण की आज्ञा के अनुसार ही सृष्टि के प्राणियों का कल्याण करते हैं। इस प्रकार भगवान विष्णु के भक्त के शत्रु की रक्षा करना हमारे वश में नहीं है।”

            ब्रह्माजी की बातों से निराश होकर दुर्वासा ऋषि भगवान शंकर की शरण में गये। पूरा वृत्तांत सुनने के बाद महादेव जी ने उन्हें समझाया, “ऋषि वर ! यह सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का शस्त्र है जो उनके भक्तजन की रक्षा करता है। इसका तेज सभी के लिए असहनीय है। अतः उचित होगा कि आप स्वयं भगवान विष्णु की शरण में जाए। केवल वे ही इस दिव्य शस्त्र से आपकी रक्षा कर सकते हैं और आपका मंगल हो सकता है।” वहाँ से भी निराश होकर दुर्वासा ऋषि भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे और उनके चरणों में सिर नवाकर दया की गुहार लगायी। आर्त स्वर में दुर्वासा बोले, “भगवन मैं आपका अपराधी हूँ। आपके प्रभाव से अनभिज्ञ होकर मैंने आपके परम भक्त राजा अंबरीष को मारने का प्रयास किया। हे दया निधि, कृपा करके मेरी इस धृष्टता को क्षमा कर मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए।”

                 भगवान नारायण ने दुर्वासा ऋषि को उठाया और समझाया, “मुनिवर ! मैं सर्वदा भक्तों के अधीन हूँ। मेरे सीधे-सादे भक्तों ने अपने प्रेम पाश में मुझे बाँध रखा है। भक्तों का एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। अतः मैं स्वयं अपने व देवी लक्ष्मी से भी बढ़कर अपने भक्तों को चाहता हूँ। जो भक्त अपने बंधु -बांधव और समस्त भोग-विलास त्यागकर मेरी शरण में आ गये हैं उन्हें किसी प्रकार छोड़ने का विचार मैं कदापि नहीं कर सकता। यदि आप इस विपत्ति से बचना चाहते हैं तो मेरे परम भक्त अंबरीष के पास ही जाइए। उसके प्रसन्न होने पर आपकी कठिनाई अवश्य दूर हो जाएगी।”

          नारायण की सलाह पाकर दुर्वासा अंबरीष के पास पहुँचे और अपने अपराध के लिए क्षमा माँगने लगे। जब से दुर्वासा राजा अंबरीष के पास से जान बचा कर भागे थे और अब लौटे थे, इतने समय में पृथ्वी पर एक वर्ष बीत चुका था। परन्तु राजा अंबरीष उसी अवस्था में खड़े ही रहे, जैसे दुर्वासा जी उनको छोड़ कर गए थे। अब राजा ने जब  परम तपस्वी महर्षि दुर्वासा की यह दुर्दशा देखी, उन्हें अत्यंत दुख हुआ। उन्होंने सुदर्शन चक्र की स्तुति की और प्रार्थना पूर्वक आग्रह किया कि वह अब लौट जाये। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर सुदर्शन चक्र ने अपनी दिशा बदल ली और दुर्वासा ऋषि को भयमुक्त कर दिया।

                      जब से दुर्वासा ऋषि वहाँ से गये थे तब से राजा अंबरीष ने भोजन ग्रहण नहीं किया था। वे ऋषि को भोजन कराने की प्रतीक्षा करते रहे। उनके लौटकर आ जाने व भयमुक्त हो जाने के बाद अंबरीष ने सबसे पहले उन्हें आदर पूर्वक बैठाकर उनकी विधि सहित पूजा की और प्रेम पूर्वक भोजन कराया। राजा के इस व्यवहार से ऋषि दुर्वासा अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें अनेकशः आशीर्वाद देने लगे। तभी कमल नयन नारायण वहां प्रगट हुए। उन्होंने दुर्वासा से कहा कि हे ऋषि आप मेरा तो अहित कर लेना, परन्तु मेरे भक्तों का अपराध मत करना। मैं अपने भक्तों का अपराध करने बाले को कभी क्षमा नहीं करता। साथ ही नारायण ने दुर्वासा जी को कहा, हे ऋषि, आपने जो अंबरीष को दस जन्मो का श्राप दिया है। आपका वचन वृथा नहीं जाएगा। आपका श्राप मैं स्वीकार करता हूं। इस श्राप के कारण ही ऋषि वर मैं दस अवतार धारण करूंगा।

                       इस कथा का तात्पर्य यहीं है कि नारायण हमेशा अपने भक्तों की रक्षा धाय की तरह करते है। वे अपने आश्रितों का अहित नहीं होने देते। कमल नयन माधव के बारे में कहावत है-:पल-पल प्रभु का नियम बदलते देखा।" अपना मान टले-टल जाए, भक्त का मान न टलते देखा। ऐसे माधवेंद्र की शरणागति स्वीकार क्यों नहीं करें।

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भक्ति की धारा प्रवाहित हो और उसमें भगवान के परम भक्तों की चर्चा नहीं हो, संभव ही नहीं। भक्तों के निर्मल चरित्र से हमें काफी कुछ सीखने-समझने का अवसर प्राप्त होता है। अब मैं आपको नारायण के ऐसे ही भक्त प्रह्लाद की कथा सुनाता हूं।

विष्णु पुराण में भक्त प्रह्लाद की कथा का उल्लेख है। साथ ही श्रीमद भागवत जी में भी भक्त प्रह्लाद की कथा है। प्रह्लाद भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक थे। एक बार हुआ यूं कि सनकादिक ऋषि चारों भाई वैकुंठ लोक में श्री नारायण का दर्शन करने पहुंचे। परन्तु भगवान के नित्य पार्षद जय और विजय ने उनको वैकुंठ के द्वार पर ही रोक लिया। अहो!.....जय-विजय के द्वारा किए धृष्टता से सनकादिक ऋषि क्रोधित हो गए और उन्होंने जय-विजय को असुर होने का श्राप दे दिया। जब कमल नयन नारायण को इसकी जानकारी हुई, वे दौड़ कर आए और सनकादिक ऋषियों की स्तुति की। भगवान की स्तुति सुनकर सनकादिक ऋषियों का क्रोध शांत हुआ। तब वे नारायण से बोले, हे पद्धनाभ, मेरे श्राप के कारण ये तीन जन्म तक असुर बनेंगे। लेकिन ये इतने प्रतापी होंगे कि इनका उद्धार करने के लिए आपको अवतार लेना होगा।

          सनकादिक ऋषियों के शाप के कारण भगवान विष्णु के पार्षद जय एवं विजय को दैत्य योनि में जन्म लेना पड़ा था। महर्षि कश्यप की पत्नी दक्ष पुत्री दिति के गर्भ से दो महान पराक्रमी बालकों का जन्म हुआ। इनमें से बड़े का नाम हिरण्यकशिपु और छोटे का नाम हिरण्याक्ष था। दोनों भाइयों में बड़ी प्रीति थी। दोनों ही महा बलशाली, अमित पराक्रमी और आत्मबल संपन्न थे। दोनों भाइयों ने युद्ध में देवताओं को पराजित करके स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। एक समय जब हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को रसातल में ले जाकर छिपा दिया तब भगवान विष्णु ने वराह अवतार लेकर पृथ्वी की रक्षा के लिए हिरण्याक्ष का वध किया।

अपने प्रिय भाई हिरण्याक्ष के वध से दुखी होकर हिरण्यकशिपु ने दैत्यों को प्रजा पर अत्याचार करने की आज्ञा देकर स्वयं महेन्द्राचल पर्वत पर चला गया। वह भगवान विष्णु द्वारा अपने भाई की हत्या का बदला लेने के लिए ब्रह्मा जी की घोर तपस्या करने लगा। इधर दैत्यों के राज्य को राजा विहीन देखकर देवताओं ने उनपर आक्रमण कर दिया। दैत्य गण इस युद्ध में पराजित हुए और पाताल लोक को भाग गए।

                       देवराज इन्द्र ने हिरण्यकशिपु के महल में प्रवेश करके उसकी पत्नी कयाधु को बंदी बना लिया। उस समय कयाधु गर्भवती थी, इसलिए इन्द्र उसे साथ लेकर अमरावती की ओर जाने लगे ।रास्ते में उनकी देवर्षि नारद से भेंट हो गयी। नारद जी ने पुछा – ” देवराज ! इसे कहाँ ले जा रहे हो ? “इन्द्र ने कहा, देवर्षि ! इसके गर्भ में हिरण्यकशिपु का अंश है, उसे मार कर इसे छोड़ दूंगा। यह सुनकर नारदजी ने कहा, देवराज ! इसके गर्भ में बहुत बड़ा भगवद् भक्त है, जिसे मारना तुम्हारी शक्ति के बाहर है, अतः इसे छोड़ दो। “

                   नारदजी के कथन का मान रखते हुए इन्द्र ने कयाधु को छोड़ दिया और अमरावती चले गए। नारदजी कयाधु को अपने आश्रम पर ले आये और उससे बोले – ” बेटी ! तुम यहाँ आराम से रहो जब तक तुम्हारा पति अपनी तपस्या पूरी करके नहीं लौटता। “कयाधु उस पवित्र आश्रम में नारदजी के सुन्दर प्रवचनों का लाभ लेती हुई सुखपूर्वक रहने लगी जिसका गर्भ में पल रहे शिशु पर भी गहरा प्रभाव पड़ा। समय होने पर कयाधु ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम प्रह्लाद रखा गया। इधर हिरण्यकशिपु की तपस्या पूरी हुई और वह ब्रह्माजी से मनचाहा वरदान लेकर वापस अपनी राजधानी चला आया।

              कुछ समय के बाद कयाधु भी प्रह्लाद को लेकर नारदजी के आश्रम से राजमहल में आ गयी। भक्त प्रह्लाद की लीला जब प्रह्लाद कुछ बड़े हुए तब हिरण्यकशिपु ने उनके शिक्षा की व्यवस्था की। प्रह्लाद गुरु के सान्निध्य में शिक्षा ग्रहण करने लगे। एक दिन हिरण्यकशिपु अपने मंत्रियों के साथ सभा में बैठा हुआ था। उसी समय प्रह्लाद अपने गुरु के साथ वहाँ गए। प्रह्लाद को प्रणाम करते देखकर हिरण्यकशिपु ने उसे अपनी गोद में बिठाकर दुलार किया और कहा –” वत्स ! तुमने अब तक अध्ययन में निरंतर तत्पर रहकर जो कुछ सीखा है, उसमें से कुछ अच्छी बात सुनाओ। “

             तब प्रह्लाद बोले – ” पिताजी ! मैंने अब तक जो कुछ सीखा है उसका सारांश आपको सुनाता हूँ। जो आदि, मध्य और अंत से रहित, अजन्मा, वृद्धि-क्षय से शून्य और अच्युत हैं, समस्त कारणों के कारण तथा जगत के स्थिति और अन्त कर्ता उन श्री हरि को मैं प्रणाम करता हूँ। “यह सुनकर दैत्य राज हिरण्यकशिपु के नेत्र क्रोध से लाल हो उठे, उसने कांपते हुए होंठों से प्रह्लाद के गुरु से कहा –” अरे दुर्बुद्धि ब्राह्मण ! यह क्या ? तूने मेरी अवज्ञा करके इस बालक को मेरे परम शत्रु की स्तुति से युक्त शिक्षा कैसे दी ? गुरूजी ने कहा – ” दैत्य राज ! आपको क्रोध के वशीभूत नहीं होना चाहिए। आपका पुत्र मेरी सिखाई हुई बात नहीं कह रहा है। “

                 हिरण्यकशिपु बोला – ” बेटा प्रह्लाद ! बताओ तुमको यह शिक्षा किसने दी है ? तुम्हारे गुरूजी कहते हैं कि मैंने तो इसे ऐसा उपदेश दिया ही नहीं है। प्रह्लाद बोले – ” पिताजी ! हृदय में स्थित भगवान विष्णु ही तो सम्पूर्ण जगत के उपदेशक हैं। उनको छोड़कर और कौन किसी को कुछ सीखा सकता है। “हिरण्यकशिपु बोला – ” अरे मूर्ख ! जिस विष्णु का तू निशंक होकर स्तुति कर रहा है, वह मेरे सामने कौन है ? मेरे रहते हुए और कौन परमेश्वर कहा जा सकता है ? फिर भी तू मौत के मुख में जाने की इच्छा से बार-बार ऐसा बक रहा है। “

                      ऐसा कहकर हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को अनेक प्रकार से समझाया पर प्रह्लाद के मन से श्री हरि के प्रति भक्ति और श्रद्धा भाव को कम नहीं कर पाया। तब अत्यंत क्रोधित होकर हिरण्यकशिपु ने अपने सेवकों से कहा – अरे ! यह बड़ा दुरात्मा है। इसको मार डालो। अब इसके जीने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि यह शत्रु प्रेमी तो अपने कुल का ही नाश करने वाला हो गया ।हिरण्यकशिपु की आज्ञा पाकर उसके सैनिकों ने प्रह्लाद को अनेक प्रकार से मारने की चेष्टा की पर उनके सभी प्रयास श्री हरि की कृपा से असफल हो जाते थे। उन सैनिकों ने प्रह्लाद पर अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्रों से आघात किए, परन्तु प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ। उन्होंने प्रह्लाद के हाथ-पैर बाँधकर समुद्र में डाल दिया पर प्रह्लाद फिर भी बच गए। उन सब ने प्रह्लाद को अनेकों विषैले साँपों से डसाया और पर्वत शिखर से गिराया पर भगवद् कृपा से प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ।

               रसोइयों के द्वारा विष मिला हुआ भोजन देने पर प्रह्लाद उसे भी पचा गए। प्रह्लाद को मारने के सब प्रकार के प्रयास विफल हो गए तब हिरण्यकशिपु के पुरोहितों ने अग्निशिखा के समान प्रज्वलित शरीर वाली कृत्या उत्पन्न कर दी। उस अति भयंकर कृत्या ने अपने पैरो से पृथ्वी को कंपित करते हुए वहाँ प्रकट होकर बड़े क्रोध से प्रह्लाद जी की छाती में त्रिशूल से प्रहार किया। पर उस बालक के छाती में लगते ही वह तेजोमय त्रिशूल टूटकर नीचे गिर पड़ा। उन पापी पुरोहितों ने उस निष्पाप बालक पर कृत्या का प्रयोग किया था। इसलिए कृत्या ने तुरंत ही उन पुरोहितों पर वार किया और स्वयं भी नष्ट हो गई।

           जब हिरण्यकशिपु ने सारे प्रयास कर लिए, परन्तु प्रह्लाद का अहित नहीं हुआ। परेशान होकर हिरण्यकशिपु हार कर बैठ गया, तब उसकी बहन होलिका उसके पास आई। उसे ब्रह्मा जी का वरदान प्राप्त था, कि उसके पास ब्रह्मा का दिया हुआ चादर ओढ कर जब वो अग्नि में बैठेगी, अग्नि उसका कुछ नहीं बिगाड़ेगा । इसके बाद होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर प्रज्वलित अग्नि में प्रवेश कर गयी पर ईश्वर की कृपा से प्रह्लाद को कुछ भी नहीं हुआ और होलिका जल कर भस्म हो गई।                                           हिरण्यकशिपु के दूतों ने उसे जब यह समाचार सुनाया तो वह अत्यंत क्षुब्ध हुआ और उसने प्रह्लाद को अपनी सभा में बुलवा। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से कहा – ” रे दुष्ट ! जिसके बल पर तू ऐसी बहकी- बहकी बातें करता है, तेरा वह ईश्वर कहाँ है ? वह यदि सर्वत्र है तो मुझे इस खम्भे में क्यों नहीं दिखाई देता ? 

         तब प्रह्लाद ने कहा – ” मुझे तो वे प्रभु खम्भे में भी दिखाई दे रहे हैं। यह सुनकर हिरण्यकशिपु क्रोध के मारे स्वयं को संभाल नहीं सका और हाथ में तलवार लेकर सिंहासन से कूद पड़ा और बड़े जोर से उस खम्भे में एक घूँसा मारा। उसी समय उस खम्भे से बड़ा भयंकर शब्द हुआ और उस खम्भे को तोड़कर एक विचित्र प्राणी बाहर निकलने लगा जिसका आधा शरीर सिंह का और आधा शरीर मनुष्य का था।

           यह भगवान श्री हरि का नृसिंह अवतार था। उनका रूप बड़ा भयंकर था। उनकी तपाये हुए सोने के समान पीली- पीली आँखें थीं, उनकी दाढ़ें बड़ी विकराल थीं और वे भयंकर शब्दों से गर्जन कर रहे थे। उनके निकट जाने का साहस किसी में नहीं हो रहा था। यह देखकर हिरण्यकशिपु सिंहनाद करता हुआ हाथ में गदा लेकर नृसिंह भगवान पर टूट पड़ा। तब भगवान भी हिरण्यकशिपु के साथ कुछ देर तक युद्ध लीला करते रहे और अंत में उसे झपटकर दबोच लिया और उसे सभा के दरवाजे पर ले जाकर अपनी जांघों पर गिरा लिया और खेल ही खेल में अपनी नखों से उसके कलेजे को फाड़कर उसे पृथ्वी पर पटक दिया। फिर वहाँ उपस्थित अन्य असुरों और दैत्यों को खदेड़-खदेड़ कर मार डाला। उनका क्रोध बढ़ता ही जा रहा था। वे हिरण्यकशिपु की ऊँची सिंहासन पर विराजमान हो गए।

                  उनकी क्रोध पूर्ण मुखाकृति को देखकर किसी को भी उनके निकट जाकर उनको प्रसन्न करने का साहस नहीं हो रहा था। हिरण्यकशिपु की मृत्यु का समाचार सुनकर उस सभा में ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर, सभी देव गण, ऋषि-मुनि, सिद्ध, नाग, गंधर्व आदि पहुँचे और थोड़ी दूरी पर स्थित होकर सभी ने अंजलि बाँध कर भगवान की अलग-अलग से स्तुति की पर भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ। तब देवताओं ने माता लक्ष्मी को उनके निकट भेजा पर भगवान के उग्र रूप को देखकर वे भी भयभीत हो गयीं।

                      तब ब्रह्मा जी ने प्रह्लाद से कहा – ” बेटा ! तुम्हारे पिता पर ही तो भगवान क्रुद्ध हुए थे, अब तुम्ही जाकर उनको शांत करो। “तब प्रह्लाद भगवान के समीप जाकर हाथ जोड़कर साष्टांग भूमि पर लोट गए और उनकी स्तुति करने लगे। बालक प्रह्लाद को अपने चरणों में पड़ा देखकर भगवान दयार्द्र हो गए और उसे उठाकर गोद में बिठा लिया और प्रेम पूर्वक बोले –वत्स प्रह्लाद ! तुम्हारे जैसे एकांत प्रेमी भक्त को यद्यपि किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं रहती पर फिर भी तुम केवल एक मन्वन्तर तक मेरी प्रसन्नता के लिए इस लोक में दैत्याधिपति के समस्त भोग स्वीकार कर लो।

                भोग के द्वारा पुण्य कर्मों के फल और निष्काम पुण्य कर्मों के द्वारा पाप का नाश करते हुए समय पर शरीर का त्याग करके समस्त बंधनों से मुक्त होकर तुम मेरे पास आ जाओगे। देवलोक में भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्ति का गान करेंगे। “यह कहकर भगवान नृसिंह अंतर्ध्यान हो गए। विष्णु पुराण में पाराशर जी ने कहा है – ” भक्त प्रह्लाद की कहानी को जो मनुष्य सुनता है उसके पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। पूर्णिमा, अमावस्या, अष्टमी और द्वादशी को इसे पढ़ने से मनुष्य को गोदान का फल मिलता है। जिस प्रकार भगवान ने प्रह्लाद जी की सभी आपत्तियों से रक्षा की थी उसी प्रकार वे सर्वदा उसकी भी रक्षा करते हैं जो उनका चरित्र सुनता है। 

                          भक्तों का चरित्र पढ़ने और सुनने, दोनों से हमें नारायण के चरणों में आश्रय मिलता है। हम नारायण के भक्ति की ओर उन्मुख होते है और हमारा एवं हमारे आश्रितों का कल्याण होता है। श्री भक्त माल में एक उद्धरण उल्लिखित है कि आज भी अयोध्या में भगवान राम के कनक भवन में भक्त कथाओं की पुस्तिका, यानी भक्त माल रखी जाती है और जब दूसरे दिन उस कथा सागर को निकाला जाता है। उसके पन्ने भीगे हुए मिलते है। इस का तात्पर्य इतना है कि जब प्रभु अपने भक्तों का निर्मल चरित्र पढ़ते है और भाव विभोर होते है। तो हम जगत के मानव का भी निश्चित ही कल्याण होगा। 

                          मैं फिर से अपनी बातों को दुहराता हूं कि हम चाहे जिस हाल में रहें, परन्तु राधा रमण के नामों का गुणगान करते रहे। जगत के सुखों का उपभोग करना गलत नहीं है, क्योंकि इसके लिए ही नारायण ने इस अखिल सृष्टि की रचना की है। परन्तु हम जो सांसारिक ऐश्वर्य में आसक्त हो जाते है, वह हमारे लिए काल कूट विष के समान है। हम इस संसार में है, जहां चारों ओर अंधकार ही फैला हुआ है। ऐसे में हमें नारायण के निर्मल नामों का करतल ध्वनि से कीर्तन और उनके भक्तों के चरित्र का ध्यान करना चाहिए। भगवान के ध्यान से ज्यादा उनके भक्तों का ध्यान ज्यादा फल दाई होता है। इसी संदर्भ में आगे मैं आपको भक्त ध्रुव की कथा बताऊँगा।

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अब मैं आपको ऐसे भक्त के बारे में बतलाऊँगा, जिसने मात्र छ वर्ष की आयु में ही नारायण के लाडले बन गए। उन्होंने नारायण कि भक्ति इस प्रकार से की कि कालजयी हो गए। वह बालक अद्भुत था, उसकी भक्ति उत्तम कोटि की थी। तभी तो उस बालक ने केवल छ महीने में ही कमल लोचन नारायण को मना लिया। 

स्वयंभु मनु और शत रूपा के पुत्र उत्तान पाद मनु के बाद सिंहासन पर विराजमान हुए। उत्तान पाद अपने पिता मनु के समान ही न्यायप्रिय और प्रजा पालक राजा थे। उत्तान पाद की दो रानियां थी। बड़ी का नाम सुनीति और छोटी का नाम सुरुचि था। सुनीति को एक पुत्र ध्रुव और सुरुचि को भी एक पुत्र था जिसका नाम उत्तम था। ध्रुव बड़ा होने के कारण राजगद्दी का स्वाभाविक उत्तराधिकारी थे परन्तु सुरुचि अपने पुत्र उत्तम को पिता के बाद राजा बनते देखना चाहती थी।

         इस कारण वो ध्रुव और उसकी माँ सुनीति से ईर्ष्या करने लगी और धीरे-धीरे उत्तान पाद को अपने मोह माया के जाल में बांधने लगी। इस प्रकार सुरुचि ने ध्रुव और सुनीति को उत्तान पाद से दूर कर दिया। उत्तान पाद भी सुरुचि के रूप पर मोहित होकर अपने पारिवारिक कर्तव्यों से विमुख हो गए और सुनीति की उपेक्षा करने लगे। एक दिन बालक ध्रुव पिता से मिलने की जिद करने लगे, माता ने तिरस्कार के भय से और बालक के कोमल मन को ठेस ना लगे इसलिए ध्रुव को बहलाने लगी । परन्तु ध्रुव अपनी जिद पर अड़े रहे। अंत में माता ने हारकर उसे पिता के पास जाने की आज्ञा दे-दी। जब ध्रुव पिता के पास पहुँचे तो देखा कि उसके पिता राजसिंहासन पर बैठे हैं और वही पास में उसकी विमाता सुरुचि भी बैठी है। अपने भाई उत्तम को पिता की गोद में बैठा देखकर ध्रुव की इच्छा भी पिता की गोद में बैठने की हुई।

                पर उत्तान पाद ने अपनी प्रिय पत्नी सुरुचि के सामने गोद में चढ़ने को लालायित प्रेम वश आये हुए अपने पुत्र को गोद में उठा न सके ।अपनी सौत के पुत्र ध्रुव को पिता की गोद में चढ़ने को उत्सुक देखकर सुरुचि को क्रोध आ गया और कहा । अरे लल्ला, बिना मेरे पेट से जन्म लिए किसी अन्य स्त्री का पुत्र होकर तू क्यों इतनी बड़ी इच्छा करता है। तू अज्ञानी है इसीलिए ऐसी अलभ्य वस्तु की इच्छा करता है। चक्रवर्ती राजाओं के बैठने के लिए बना यह राजसिंहासन तो सिर्फ मेरे पुत्र उत्तम के ही योग्य है तू इस व्यर्थ की इच्छा को अपने मन से निकाल दे। अपनी विमाता का ऐसा कथन सुनकर ध्रुव ग्लानि और अपमान से व्यथित होकर पिता को छोड़कर अपनी माता के महल को चल दिए । उस समय क्रोध से ध्रुव के होंठ कांप रहे थे और वे सिसकियाँ ले रहा थे।

                 अपने पुत्र को इस प्रकार अत्यंत क्रोधित और खिन्न देखकर सुनीति ने ध्रुव को प्रेम पूर्वक अपनी गोद में बिठाकर पूछा – ” बेटा, तेरे क्रोध का क्या कारण है? किसने तेरा निरादर किया है? ये सुनकर ध्रुव ने अपनी माता को रोते हुए वह सब बात बताई जो उसकी विमाता ने पिता के सामने कही थी। अपने पुत्र से सारी बात सुनकर सुनीति अत्यंत दुखी होकर बोली । बेटा, सुरुचि ने ठीक ही कहा है, तू अवश्य ही मंदभाग्य है जो मेरे गर्भ से जन्म लिया। पुण्यवान से उसके विपक्षी भी ऐसी बात नहीं कह सकते। पूर्वजन्म में तूने जो कुछ भी किया है उसे कौन दूर कर सकता है और जो नहीं किया है उसे तुझे कौन दिला सकता है। इसलिए तुझे अपनी विमाता की बातों को भूल जाना चाहिए। हे वत्स, पुण्यवान को ही राजपद, घोड़े, हाथी आदि प्राप्त होते हैं, ऐसा जानकर तू शांत हो जा।

यदि सुरुचि के वाक्यों से तुझे अत्यंत दुःख हुआ है तो सर्व फलदायी पुण्य के संग्रह करने का प्रयत्न कर।

तू सुशील, पुण्यात्मा और समस्त प्राणियों का हितैषी बन क्योंकि जिस प्रकार नीची भूमि की ओर ढलकता हुआ जल अपने आप ही जलाशयों में एकत्र हो जाता है। उसी प्रकार सत्पात्र मनुष्य के पास समस्त संपत्तियाँ अपने आप ही आ जाती हैं। माता की बात सुनकर ध्रुव ने कहा । माँ, अब मैं वही प्रयत्न करूँगा जिससे सम्पूर्ण लोकों में आदरणीय सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त कर सकूँ। अब मुझे पिता का सिंहासन नहीं चाहिए वह मेरे भाई उत्तम को ही मिले।

मैं किसी दूसरे के दिए हुए पद का इक्षुक नहीं हूँ, मैं तो अपने पुरुषार्थ से ही उस परम पद को पाना चाहता हूँ जिसको पिताजी ने भी नहीं प्राप्त किया है। अपनी माता से इस प्रकार कहकर ध्रुव सुनीति के महल से निकल पड़े और नगर से बाहर वन में पहुँचे। फिर वे निश्चल होकर वन मार्ग की ओर बढ चले। उन्हें इस प्रकार से वन को जाता देखकर देवर्षि नारद उसके सामने प्रगट हो गए। ध्रुव ने जब उनको देखा, नन्हे से ध्रुव ने उनको प्रणाम किया। 

                         उसे आशीर्वाद देने के बाद नारद उसको समझाने लगे कि इस प्रकार से सिर्फ एक उलाहना के लिए  परिवार को त्याग कर निकलना, उचित तो नहीं।...फिर तुम तो अभी बालक हो, अभी तो तपस्या करने की तुम्हारी उम्र भी नहीं है। मेरी मानो तो महल को लौट चलो, तुम जो चाहते हो, तुम्हें मैं दिलवाऊंगा। तुम्हें पिता का गोद ही चाहिए न, मैं तुमको दिलवा दूंगा...बस तुम लौट चलो। परन्तु उस छोटे से बालक ध्रुव पर उनके उपदेश का असर नहीं हुआ। वे तो तपस्या करने जाने को उद्धत थे। उनकी ढृढता देखकर देवर्षि बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने ध्रुव को उपदेश दिया।

                 हे राजपुत्र, बिना नारायण की आराधना किए मनुष्य को वह श्रेष्ठ स्थान नहीं मिल सकता अतः तू उनकी ही आराधना कर। जो परा- प्रकृति से भी परे हैं वे परमपुरुष नारायण जिससे संतुष्ट होते हैं उसी को वह अक्षय पद प्राप्त होता है, यह मैं एकदम सच कहता हूँ। यदि तू अग्र स्थान का इक्षुक है तो जिस सर्वव्यापक नारायण से यह सारा जगत व्याप्त है, तू उसी नारायण की आराधना कर।  जो पर ब्रह्म, परमधाम और परम स्वरूप हैं उन नारायण की आराधना करने से मनुष्य अति दुर्लभ मोक्ष पद को भी प्राप्त कर लेता है।  हे सुव्रत, जिन जगत पति की आराधना से इन्द्र ने इन्द्रपद प्राप्त किया है तू उन यज्ञपति भगवान विष्णु की आराधना कर। जो परमपुरुष यज्ञ पुरुष, यज्ञ और योगेश्वर हैं, उन जनार्दन के संतुष्ट होने पर कौन सी वस्तु दुर्लभ रह जाती है।  हे वत्स, विष्णु भगवान की आराधना करने पर तू अपने मन से जो कुछ चाहेगा वही प्राप्त कर लेगा, फिर त्रिलोकी के श्रेष्ठ स्थान की तो बात ही क्या है। 

           उनके उपदेश को सुनकर नन्हा सा ध्रुव शांत हुआ। फिर उसने नारद जी से प्रश्न किया। अब कृपा करके मुझे यह भी बता दीजिये कि मैं किस प्रकार उनकी आराधना करूँ? उसके बाल वचन सुनकर देवर्षि बोले– ” हे राजकुमार, तू समस्त वाह्य विषयों से चित्त को हटा कर उस एकमात्र नारायण में अपने मन को लगा दे और एकाग्रचित्त होकर ‘ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ‘ इस मंत्र का निरंतर जाप करते हुए उनको प्रसन्न कर। 

                         नारद जी ने ध्रुव को व्रत विधि भी बतलाई। इसके बाद ध्रुव ने देवर्षि को प्रणाम किया और वहां से चल दिया। यमुना के तट पर अति पवित्र मधुवन  में पहुँचा। जिस मधुवन में नित्य श्री हरि का सानिध्य रहता है उसी सर्व पाप हारी तीर्थ में ध्रुव कठोर तपस्या करने लगे। उन्होंने नारद जी द्वारा बताए हुए नियमों का पालन करते हुए प्रथम महीने में फला हार किया और नारायण के मंत्र" ऊँ नमों भगवते वासुदेवाय का जाप किया। दूसरे महीने में सिर्फ सूखे पत्तों का आहार लिया। तीसरे महीने में सिर्फ जल और चौथे महीने में तीसरे दिन पर जल। पांचवें महीने में सिर्फ वायु। छठे महीने में तो उन्होंने वायु का भी त्याग कर दिया और श्री हरि में एकाग्रचित्त हो गए। श्री हरि अपने चतुर्भुज रुप से ध्रुव के हृदय में प्रगट हो गए और बालक ध्रुव की समाधि लग गई।

          देवराज इंद्र ने ध्रुव की तपस्या से प्रभावित होकर काफी कोशिश की, ध्रुव को डिगाने की। उन्होंने माया से कभी हिंसक जंगली पशुओं के द्वारा तो कभी राक्षसों के द्वारा ध्रुव के मन में भय उत्पन्न करने की कोशिश की परन्तु विफल रहने पर ध्रुव की माता के रूप में भी उसका ध्यान भंग करने का प्रयत्न किया। पर ध्रुव एकाग्रचित्त होकर सिर्फ भगवान विष्णु के ध्यान में ही लगा रहा और किसी की ओर देखा तक नहीं।

                            और जैसे ही ध्रुव की समाधि लगी। अखिल ब्रह्मांड में हाहाकार मच गया, क्योंकि जगत का प्राण वायु रुक गया। इस प्रकार से प्राण वायु रुकने से पूरे जगत के जीव व्याकुल हो गए। तब देवता और ऋषि गण ब्रह्मा जी के साथ वैकुंठ गए। उन्होंने नारायण की स्तुति की और कहने लगे। हे जनार्दन, हम उत्तान पाद के पुत्र की तपस्या से भयभीत होकर आपकी शरण में आये हैं। हम नहीं जानते कि वह इन्द्रपद चाहता है या उसे सूर्य, वरुण या चन्द्रमा के पद की अभिलाषा है। आप हमपर प्रसन्न होइए और उसे तप से निवृत्त कीजिये। 

श्री भगवान बोले – हे ब्रह्मा, हे ऋषिओ हे देव गण, उसे इन्द्र, सूर्य, वरूण, कुबेर आदि किसी पद की अभिलाषा नहीं है। आप सब लोग निश्चिंत होकर अपने स्थान को जाए। मैं तपस्या में लगे हुए उस बालक की इच्छा को पूर्ण करके उसे तपस्या से निवृत्त करूँगा। श्री हरि के ऐसा कहने पर देवता गण उन्हें प्रणाम करके अपने स्थान को चले गए। भगवान विष्णु अपने भक्त ध्रुव की कठिन तपस्या से संतुष्ट होकर उसके सामने प्रकट हो गए। श्री हरि बालक ध्रुव के सामने इसलिये नहीं प्रगट हुए थे कि उनको ध्रुव को दर्शन देना था। नारायण तो आप ही ध्रुव के हृदय में प्रगट हो गए थे और बालक ध्रुव उनके स्वरूप में समाधिस्थ हो चुका था। आज नारायण उस भागवत ध्रुव के दर्शन करने आए थे। श्री हरि ने बालक ध्रुव को अपने कृपा भरे नयनों से देखा और बोले। हे उत्तान पाद के पुत्र ध्रुव, तेरा कल्याण हो। परन्तु ध्रुव की समाधि नहीं टूटी। नारायण समझ गए और उन्होंने ध्रुव के हृदय से अपने स्वरूप को हटा दिया। विकल बालक ध्रुव ने आँखें खोलीं और ध्यानस्थ में देखे हुए भगवान को शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए हुए साक्षात अपने सामने खड़े देखा।

            तब उसने भगवान को साष्टांग प्रणाम किया और सहसा रोमांचित  होकर भगवान की स्तुति करने की इच्छा की। पर इनकी किस प्रकार स्तुति करूँ, ये सोचकर ध्रुव का मन व्याकुल हो गया। नारायण तो भक्त वत्सल है, वे अपने ढृढ निश्चयी भक्त के हृदय की पीड़ा किस प्रकार से सहन करते। अतः भगवान विष्णु ने अपने शंख से ध्रुव के होंठों पर  स्पर्श किया। इसके बाद क्षण मात्र में ध्रुव भगवान की उत्तम प्रकार से स्तुति करने लगा। जब ध्रुव की स्तुति समाप्त हुई, तब भगवान बोले । हे ध्रुव, तुमको मेरा साक्षात् दर्शन हुआ है इससे निश्चित ही तेरी तपस्या सफल हो गयी है पर मेरा दर्शन तो कभी निष्फल नहीं होता इसलिए तुझे जिस वर की इच्छा हो वह मांग ले। ध्रुव बोला.... हे नारायण, आपसे इस संसार में क्या छिपा हुआ है। मैं मेरी सौतेली माता के गर्वीले वचनों से आहत होकर वन को आया था। उस समय तो हृदय में अनेकों इच्छाएँ थी। परन्तु आपको पा लेने के बाद मेरे मन से अंधकार मिट गया है। हे कमल नयन, हे भक्त वत्सल, आपको पा लेने के बाद हृदय में अब शेष इच्छाएँ ही नहीं बची है।

                 बालक ध्रुव की बातें सुनकर पद्धनाभ श्री हरि मंद-मंद मुस्करा कर बोले । वत्स, मेरे इस स्वरूप का दर्शन अमोघ है। भले ही तुम्हारी इच्छाएँ पूर्ण हो चुकी है, परन्तु तुमने जिस उद्देश्य से मेरी इतनी कठोर उपासना की है, वह व्यर्थ नहीं हो सकता। हे वत्स, तूने अपने पूर्व जन्म में भी मुझे संतुष्ट किया था इसलिए तुमने जिस स्थान की कामना से इस तप को किया है,  वह तुझे अवश्य प्राप्त होगा।

               हे पुत्र ध्रुव, तुम भू-मंडल पर छत्तीस हजार वर्षों तक रहकर संसार के ऐश्वर्य का उपभोग करो। उसके बाद सदेह ही ध्रुव लोक को गमन करोगे और अनंत काल तक वहां निवास करोगे। मेरे प्रिय भक्त ध्रुव, मैं तुझे वह निश्चल ( ध्रुव ) स्थान देता हूँ जो सूर्य, चंद्र आदि ग्रहों, सभी नक्षत्रों और सप्तर्षियों से भी ऊपर है। तेरी माता सुनीति भी वहाँ तेरे साथ निवास करेगी और जो लोग प्रातःकाल और संध्याकाल तेरा गुणगान करेंगे उन्हें महान पुण्य प्राप्त होगा। इतना कहने के बाद श्री हरि अंतर्ध्यान हो गए और ध्रुव अपने राज्य की ओर लौट गए। 

                           नगर में लौटने पर राजा उत्तान पाद ने ध्रुव का भव्य स्वागत किया। इसके बाद ध्रुव को राज्य सिंहासन पर बिठाकर वन को गमन कर गए। ध्रुव ने धर्म अनुसार राज्य किया और अपने अंतिम समय में पुत्र को राज्य सिंहासन देकर बद्रिका आश्रम आ गए और वही आश्रम बनाकर रहने लगे। जब उनका धरा धाम पर समय पूर्ण हुआ, उनको लेने के लिए भगवान के पार्षद पहुंचे। परन्तु नारायण का विमान ऊँचा था अतः ध्रुव संकोच में पड़ गए कि विमान पर किस प्रकार से चढे। तभी उनके सामने मृत्यु देव आकर खड़े हुए। मृत्यु देव ने अपने सिर को झुकाया और ध्रुव ने उनके सिर पर अपना पैर रखा और विमान पर चढ गए।

                   धन्य है ध्रुव की माता सुनीति जिन्होंने अपने हितकर वचनों से ध्रुव के साथ- साथ स्वयं भी उस सर्वश्रेष्ठ स्थान को प्राप्त कर लिया। ध्रुव के नाम से ही उस दिव्य लोक को संसार में ध्रुव तारा के नाम से जाना जाता है। ध्रुव का मतलब होता है स्थिर, दृढ़, अपने स्थान से विचलित न होने वाला जिसे भक्त ध्रुव ने सत्य साबित कर दिया। भक्त ध्रुव की कहानी से हमें ये शिक्षा मिलती है कि जिसके मन में दृढ़ निश्चय और हृदय में आत्मविश्वास हो वह कठोर पुरुषार्थ के द्वारा इस संसार में असंभव को भी संभव कर सकता है। ध्रुव तारा को इंग्लिश में नाँर्थ स्टार कहते हैं। जैसा की नाम से ही स्पष्ट है यह उत्तर दिशा की ओर दिखाई पड़ता है। सुबह के समय सूरज उगने के पहले आप इसे उत्तर दिशा में देख पाएंगे। इसकी और एक पहचान है कि यह बहुत ही चमकदार तारा है। 

                       यह होता है भक्ति की शक्ति, जो कि इंसान को उस स्थान पर पहुंचा देता है, जो देवताओं को भी दुर्लभ है। हम तो नारायण के शरणागति को उत्सुक ही नहीं है, वरना तो नारायण हमारे होने को तत्पर ही है। बस जरूरत है, उनकी ओर उन्मुख होने की, उनकी शरणागति को स्वीकार्य करने की। मैं फिर से कहता हूं कि सांसारिक ऐश्वर्य का उपभोग करने से विरक्त होने की जरूरत बिल्कुल भी नहीं है। जरूरत है, तो सिर्फ कमल नयन श्री हरि के चरणों से स्नेह जोड़ने की। उनका हो कर तो देखे, फिर हमारा मन अति निर्मल हो जाएगा और हमें किसी प्रकार की व्याधि बिलकुल भी परेशान नहीं करेगी। आपको इसी क्रम में आगे भक्त शिरोमणि हनुमान जी की कथा सुनाऊंगा। 

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श्री बजरंग बली, अंजन सुत, पवन तनय वीर हनुमान की कथा भी इसी श्रेणी में आती है। महाबली हनुमान ग्यारहवें रुद्र है। बजरंग बली श्री राम के अनन्या-नन्य भक्त है। उनको राम नाम के अलावा जगत में कुछ भी तो प्रिय नहीं। वे संत जनों के हितकारी है, उनके हृदय में अवध बिहारी का निवास है। उनकी कथा समस्त मानव जगत के लिए शुभ और कल्याणकारी है। इसलिये आगे उनकी कथा सुनाता हूं।

                    हनुमान जी शंकर सुमन, ग्यारहवें रुद्र थे। माता अंजन जब कुमारी थी, तभी बजरंग बली ने जन्म लिया था। ऐसे में माता अंजन घबरा गई और उनकी घबराहट को देखकर ऋषियों ने उन्हें कहा कि वे मारुति को ढककर रख दे। जो उनके ढक्कन को हटाएगा, उनका पिता कहलाएगा। बस, पवन देव तीव्र गति से चले और उस टोकरी को पलट दिया, जिससे हनुमान जी को ढंककर रखा गया था, इसलिए हनुमान जी पवन पुत्र कहलाए। उस समय संध्या के चार बज रहे थे और माता अंजन जल भरने नदी को जा रही थी। जन्म लेते ही उन्होंने माता से भोजन की मांग की और माता ने लाल फल खाने को कहा।

               बस उन्होंने सूरज को फल समझकर निगल लिया । रास्ते में राहु ने उनका मार्ग रोका तो राहु को उन्होंने दूर फेंक दिया। फिर उन्होंने जैसे ही सूर्य को निगला, पूरी सृष्टि अंधकार में डूब गई। इससे घबरा कर देवताओं के साथ देखकर इंद्र आए। उन्होंने पहले तो मारुति को समझाया। परन्तु हनुमान सूर्य को उगलने को राजी नहीं हुए। तब इंद्र ने व्रज फेंककर उनकी ठुड्डी पर प्रहार किया तो उनकी ठुड्डी टूट गई और वे मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़े । जिसके चलते उनके पिता पवन देव नाराज हो गए। उन्होंने संपूर्ण विश्व से प्राण वायु को अपनी ओर खींच लिया। इससे संसार के सभी जीव जंतु मरने लगे। यह देखकर सभी देवता ब्रह्माजी के साथ एकत्रित होकर उन्हें मनाने लगे। उन्होंने हनुमान जी को पुन: सचेत किया, इसके  बाद सभी देवताओं ने हनुमान जी को अपनी- अपनी शक्तियां प्रदान की।

       हनुमान जी ने बचपन में पवन देव और ऋषि मातंग से शिक्षा ग्रहण की थी। वह बचपन में ऋषियों के आश्रम के सारे फल खा जाते थे और ऋषियों को बहुत परेशान करते थे। हनुमान जी बचपन में बहुत ही नटखट और उद्यमी बालक थे। एक बार फलों के वन में इंद्र पुत्र जयंत, सूर्य पुत्र शनि आदि देवताओं के पुत्रों से भी उनका सामना हुआ था। एक बार उनके हरकतों से परेशान होकर ऋषि ने उन्हें श्राप दिया था कि वे अपनी शक्ति भूल जाएंगे। तब माता अंजन ने ऋषि की स्तुति की, तो ऋषि ने कहा कि कोई इनको-इनकी शक्ति याद दिलाएगा, तो इन्हें याद आ जाएगा। हनुमान जी ने बचपन में ही अपने महाबली बाली काका का मान मर्दन कर दिया था । बाली को अपने उड़ने की तेज शक्ति पर बहुत अभिमान था लेकिन हनुमान जी ने उससे भी तेज उड़कर उसका अहंकार तोड़ दिया। परन्तु  बाली का फिर भी अभिमान नहीं टूटा और उसने गदा युद्ध किया और हार गया। तब उसने हनुमान जी के पैर पकड़ लिए ।

                  हनुमान जी ने एक बार शनि देव के अभिमान को बचपन में ही तोड़ दिया था। बचपन में शनि देव अपने माता पिता से रूठ कर घर से भाग गए और अपनी शक्ति के बल पर लोगों को परेशान करने लगे। इस तरह शनि देव ने एक गांव में इसलिए आग लगा दिया, क्योंकि उस गांव के लोग उन्हें पानी नहीं पीने दिया। सभी गांव वाले शनि देव को घेरकर मारने का प्रयास करने लगे, तो मारुति ने उन्हें बचा लिया । लेकिन शनि देव ने उनके  इस उपकार  को नहीं माना । उन्होंने हनुमान जी से कहा कि तुम्हें मेरे रास्ते में नहीं आना चाहिए था। हनुमान जी ने उनकी बातें सुनकर कहा कि अब तुम सीधे अपने पिता के पास जाओ।  लेकिन शनि देव उनसे वाद विवाद करने लगे। फिर दोनों में गदा युद्ध होने लगा, तब हनुमान जी ने उन्हें अपनी पूंछ में लपेट लिया और उनके पिता के पास ले गए । इस तरह ऐसे कई मौके आए जबकि हनुमान जी की शनि देव से टक्कर हुई और उन्हें शनि देव को सबक सिखाया। अंत: में रावण की कैद से वे शनि देव को छुड़ा दिया। तब शनि देव हनुमान जी के भक्त बन गए और उन्होंने कहा कि जो भी तुम्हारा भक्त होगा उस पर मेरी वक्र दृष्टि का असर नहीं होगा।

             प्रभु श्री राम−श्री हनुमान जी की प्रथम भेंट अति सुंदर प्रसंग है और सागर से भी गहरा व विशाल है। कारण कि सागर तो फिर भी असीम है लेकिन भक्त और भगवान की रसीली, अलौकिक व भावपूर्ण कथा इतनी विराट व अथाह है कि इस कथा का कोई ओर−छोर दिखाई नहीं देता। शब्दों व कलम में ऐसा सामर्थ्य कहाँ कि वे इस कथा को लिखित कर सके। लेकिन यह प्रभु की इच्छा है कि वे भिन्न−भिन्न साधनों से अपनी दिव्य लीलाओं का शिलान्यास करवा कर हमें आत्म कल्याण की ओर अग्रसर कराते हैं।

          भक्त हनुमान एवं भगवान श्री राम का अलौकिक व मीठा वार्तालाप में श्री हनुमान जी का भाव देखिए वे एक नन्हे शिशु की मानिंद व्यवहार कर रहे हैं। एक ऐसा शिशु जो अपनी माता से उलाहना करने में किंचित भी नहीं घबराता और न ही टलता है। शिशु का तो मानो स्वभाव ही है कि वह माटी व गंदगी से मलिन होगा ही होगा। यह तो जैसे उसके जन्मसिद्ध अधिकार जैसा है। फिर इसमें कैसी हैरानी? क्योंकि आश्चर्य तो तब है कि माँ यह सब देखती रहे और शिशु की गंदगी साफ ही न करें। शिशु की सुध तक न ले और उसे भूल जाए। श्री हनुमान जी यही तो उलाहना दे रहे हैं:-

एकु मैं मंद मोहवश कुटिल हृदय अज्ञान ।

पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान।।

                         अर्थात् हे प्रभु आप क्यों नहीं देख रहे? एक तो मैं मंद, मोह वश, हृदय का कुटिल एवं अज्ञान से भरा हूँ। मलिनताएं मुझे नख से सिर तक पीड़ित किए हुए हैं। आप को तो अविलम्ब मुझे शिशु की भांति गोद में उठा लेना चाहिए। लेकिन आप तो मुझसे उलटा यह पूछ रहे हैं कि मैं कौन हूँ? श्री राम से मुलाकात के दौरान अपना असली परिचय देने को आतुर थे हनुमान जी। प्रभु अधरों से तो कुछ नहीं बोले पर दिव्य मुस्कुराहट में गाथाओं का विवरण समेटे लिए । मानो पूछ रहे हों कि हनुमान तुमने अपने मुख्यतः चार रोग बताए− मंद, मोहबस, हृदय की कुटिलता व अज्ञानता। इनमें से सबसे अधिक व्याधि क्या प्रतीत होती है? भाव की गंगा श्री हनुमान जी के हृदय से भी फूट पड़ी कि हे प्रभु! मेरी चारों व्याधियां तो मानो कोढ़ी का कोढ़ था। जिससे पार पाने की मैंने आस ही त्याग दी थी। यही मेरी मानसिक दरिद्रता का केन्द्र बिंदु थे। लेकिन जो घाव व मानसिक पीड़ा आपने मुझे यह पूछकर दी है कि मैं कौन हूँ उसके सामने मेरी समस्त प्रीड़ाएँ गौण हैं। भला हमारा यह पंच तत्त्व देह धरण करने का औचित्य ही क्या रह गया? जब हम आपकी ही दृष्टि से ओझल हो गये। मानो पपीहा कब से पीउ−पीउ की रट लगा आकाश में नयन गड़ाए बैठा रहे और मेघ उस दिशा का पता ठिकाना ही भूल जाए। तो उस पपीहे की स्थिति कैसी दयनीय होगी पता है न! बस आपका भी मुझे यूं भूल जाना हृदय में चुभे कांटे की तरह अखर गया प्रभु−

          यद्यपि हे नाथ, मुझ में बहुत से अवगुण हैं तदापि सेवक स्वामी की विस्मृति में न पड़े। सही भी था, क्योंकि अगर पृथ्वी ही किसी पेड़ को जड़ें जमाने से मना कर दे तो वह पेड़ की क्या गति होगी। पक्षी है तो आसमां भी उसे बाहें फैला कर स्वीकार करें। तभी तो वह उड़ पाएगा। वरना आसमां ने ही उसे पटक कर धरा पर दे मारे तो उसका अस्तित्व भला क्या बचेगा। माना कि आप उस पर रीझते हैं जो आपकी  भजन−बंदगी में लगा रहता है। तो लगे हाथ मैं आपको एक अंदर की बात बता दूं। क्योंकि लोग भले मुझे भक्त समझें। परंतु मैं शोर मचा−मचाकर कहता हूँ कि मुझे कोई भजन बंदगी नहीं आती:-

ता पर मैं रघुवीर दोहाई। 

जानऊँ नहीं कछु भजन उपाई।।

           श्री रघुवीर, वीर हनुमान जी के प्रेम भावों का बड़ी रीझ से रसपान कर रहे थे और कितने ही समय के पश्चात उन्हें कोई मिला था जो यह कह रहा था कि मुझे कोई भजन इत्यादि नहीं आता। वरना श्री राम तो प्रत्येक घड़ी ऐसे ही भक्तों का सामना करते हैं। जो जानते तो चुल्लू भर नहीं होते और गाल ऐसे बजाते हैं मानो सातों समुद्र उन्हीं की अंजुली में सिमटे हों। जैसे हैं वैसे तो अपने को कोई प्रस्तुत नहीं करता। बस नाम और दाम बड़ा दिखना चाहिए। भले ही इसके लिए राम कितने भी छोटे दिखाने पड़ जाएं। यूं ही अहंकार लेकर जब कोई प्रभु के समक्ष बिलकुल तना, सीधा व अकड़ा रहता है तो प्रभु के श्री चरणों में थोड़ी न टिका रहता है। जैसे धनुष व बाण को ही देखिए। तीर बिलकुल सीधा है उसमें कहीं कोई टेढ़ापन नहीं। यद्यपि धनुष टेढ़ा है, सीधा बिलकुल भी नहीं। क्या आप बता सकते हैं कि तीरंदाज किस को अपने पास रखता है? और किसको दूर धकेलता है। जी हाँ! तीर अंदाज धनुष को अपने कंधों पर सजाकर रखता है। और तीर को दूर भेजता है। 

                           कारण कि धनुष को कितने भी बार, मोड़ा जाए वह मुड़ने से कभी मना नहीं करता। और दोनों किनारों से रस्सी से बंधा होने पर भी कभी स्वतंत्र होने के लिए फड़फड़ाता नहीं। फलस्वरूप तीरंदाज के कंधों का श्रृंगार बना रहता है। यद्यपि तीर हमेशा तूणीर पर कब्ज़ा कर पीठ पर चढ़ा रहता है। और तीरंदाज की पीठ पीछे ही अपने शिकारों को निहारता रहता है। तीखी नुकीली नाक लिए सदैव रक्त का प्यासा रहता है। तीरंदाज जब उसे धनुष पर चढ़ाने के पश्चात अपनी ओर खींचता है तो मानो यही कहना चाहता है कि हे तीर तू मत जा कहीं पर! यही रह मेरे पास, देख मैं तुझे कैसे अपनी और खींच रहा हूँ। देख तुझे खींचने के चक्कर में मेरे धनुष की कमर भी मानो टूटने  को है। पर तब भी मैं तुझे और बल से खींच रहा हूँ। लेकिन तीर तो तीर है। कहाँ मानने वाला है। तीरंदाज सोचता है कि अब तो मैंने संपूर्ण बल से तीर को खींच लिया है। अब तो यह टिका ही रहेगा। चलो क्यों न अब मैं इस पर बल व प्रयास छोड़ दूं। जानते हैं सज्जनों! तीरंदाज के द्वारा तीर छोड़ते ही तीर उतनी गति व तीव्रता से दूर भागता है जितने अधिक बल से उसे अपने पास रखने का प्रयास किया गया था, वह उतनी ही गति से दूर हो जाता है।

                       इसके बाद हनुमान जी श्री राम को पहचान गए। वे अपने प्रभु के चरणों में गिर पड़े और भक्त वत्सल श्री राम भी तो विह्वल हो गए। उन्होंने बजरंग बली को हृदय से लगा लिया, भक्त को भगवान और भगवान को भक्त ने पहचान लिया। इसके बाद हनुमान जी प्रभु श्री राम को ऋृष्यमुक पर्वत पर लेकर आए, जहां उन्होंने सुग्रीव से उनकी मित्रता करवाई। परन्तु अभी तक मारुति को वह स्थान प्राप्त नहीं हुआ था, जो उनको चाहिए था। जब वे अशोक वाटिका में सीता जी की खोज करते हुए पहुंचे और जब माता सीता उनपर प्रसन्न हुई। उन्होंने बजरंगी को कहा।

अजर-अमर गुन निधि सुत होहूं। 

करहूं बहुत रघु नायक छोहूं।

                            इसके बाद हनुमान जी को माता का आशीर्वाद प्राप्त हुआ और बजरंगी राम के हो गए। तभी तो जब वे राम को सीता जी की सुधि बताते है, श्री राम पुलकित होकर बोले "सुनु सुत तोही उरिन मैं नाहीं। नारायण का जो हो जाता है, कमल नयन उसके ऋृनी हो जाते है। तभी तो राम का राज्याभिषेक हुआ, राम ने खुश होकर मणि की दिव्य माला हनुमान को पहना दी। परन्तु यह क्या, मारुति ने तो माला को तोड़ दिया और उसके एक-एक मनका को फोड़ कर उसके अंदर-बाहर देखने लगे। अब तो विभीषण जी नाराज हो गए, उन्होंने तो श्री राम को अमूल्य उपहार दिया था। परन्तु हनुमान, वे तो उसकी दिव्यता को ही नष्ट कर रहे है। 

                 विभीषण जी ने नाराज नजरों से श्री राम को देखा और राम उनका आशय समझ गए। उन्होंने मारुति को टोका!....हनुमान, यह तुम क्या कर रहे हो? तुमने तो अमूल्य मणि की माला को ही नष्ट कर दिया। बजरंग बली ने सुना और विनम्रता पूर्वक बोले। मैं इस माला में राम को ढूंढ रहा हूं और उनके नहीं मिलने पर इसे तोड़ कर फेंक रहा हूं। क्योंकि बिना राम नाम के संसार की सभी वस्तुएँ बेकार है, नाशवान है। बस......सभा में हलचल बढ गई और आवाज भी उठी कि क्या आपके हृदय में श्री राम है। मारुति ने ढृढता से कहा कि हां-है और उन्होंने हृदय को चिड़कर दिखला दिया। श्री राम जानकी सहित उनके हृदय में विराजमान थे। 

                          ऐसा नहीं है कि हनुमान जी सिर्फ भगवान की भक्ति ही करते है। वे अपने माता के परम आज्ञाकारी एवं अपने आश्रितों के हित रक्षक भी है। इसको लेकर एक वृतांत बतलाता हूं:-

मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम के परम भक्त श्री हनुमान जी अपने आराध्य का ही सुमिरन करते रहते है। दशरथनंदन राम हनुमान के हृदय में बसते हैं। परन्तु एक बार पवन सुत हनुमान ने श्री राम जी से ही लड़ाई की थी। हो सकता है यह पढ़कर आपको हैरानी हो। लेकिन यह सत्य है और इस घटना का जिक्र श्री राम कथा में भी सुनने और पढ़ने को मिलता है। लेकिन इससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि पवन सुत जब श्री राम से लड़ने के लिए तैयार हुए तो उन्होंने सौगंध भी मर्यादा पुरुषोत्तम की ही ली। आइए जानते हैं कि ऐसा क्या हुआ था कि श्री राम के परम भक्त पवन सुत को उनसे युद्ध करना पड़ा?

               कथा है कि एक बार सुमेरू पर्वत पर सभी संतों की सभा का आयोजन हुआ। कैवर्त देश के राज सुकंत भी उसी सभा में सभी संतों का आशीर्वाद लेने जा रहे थे। रास्ते में उन्हें देवर्षि नारद मिले। राजा सुकंत ने उन्हें प्रणाम किया। इसपर श्री नारद जी ने उन्हें आशीर्वाद देकर यात्रा का प्रयोजन पूछा। राजा सुकंत ने उन्हें संत सभा के आयोजन की बात बताई। इस पर नारद मुनि ने कहा अच्छा है संतों की सभा में जरूर जाना चाहिए। ऐसा कहकर सुकंत को जाने का आदेश दिया। परन्तु उन्होंने सुकंत को समझा दिया कि उस सभा में सभी को प्रणाम करना, परन्तु विश्वामित्र को प्रणाम मत करना। हलांकि सुकंत ने कहा भी कि यह उचित नहीं होगा। परन्तु देवर्षि ने उन्हें समझाया कि आप भी क्षत्रिय हो और विश्वामित्र भी तो क्षत्रिय ही है।

                   राजा सुकंत देवर्षि की बातों में आ गया और उसने ऐसा ही किया। सभा के समाप्त होते ही विश्वामित्र जी श्री राम से मिलने पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने बताया कि उनका अपमान हुआ है। वह इसे भूल भी जाते लेकिन यह तो संत परंपरा का अपमान है। श्री राम जी ने पूछा किसने किया है? तब विश्वामित्र जी ने पूछा कि जानकर करोगे भी क्या? इसपर श्री राम जी ने कहा कि गुरु जी आपके चरणों की सौगंध लेकर प्रतिज्ञा करता हूं जो सिर आपके चरणों में नहीं झुका है, उसे काट दिया जाएगा। कल सुबह मैं उसका वध करूंगा।

                 श्री राम की इस सौगंध का जैसे ही राजा सुकंत को पता चला तो वे नारद मुनि को ढूंढने लगे। काफी देर तक वह परेशान रहे लेकिन नारद मुनि उन्हें मिल ही नहीं रहे थे। व्याकुल होकर जब वह रोने लगे तब नारद जी प्रकट हुए। सुकंत ने हाथ जोड़कर उन्हें सारी बात कह सुनाई। साथ ही प्राण दान की विनती की। इसपर नारद जी ने उन्हें माता अंजनजी की शरण में जाने की सलाह दी। यह भी कहा कि अगर उन्होंने तुम्हें बचाने का वचन दे दिया तो तुम जरूर बच जाओगे। लेकिन यह भी कहा कि वह किसी को यह नहीं बताएंगे कि नारद जी ने उन्हें यह सलाह दी है।

             राजा सुकंत बस दौड़ा- दौड़ा आंजन प्रदेश पहुंचा और माता अंजन के महल के सामने रोने लगा। उसके  रोने की आवाज सुनकर माता अंजनजी बाहर पहुंचीं। तब उन्होंने कहा कि माता मुझे बचा लें अन्यथा विश्वामित्र जी मुझे मार डालेंगे। इस पर माता अंजनजी ने सुकंत को उसके प्राण बचाने का वचन दिया। उन्होंने कहा कि तुम शरण में हो, तुम्हें कोई नहीं मार सकता। इसके बाद राजा सुकंत को विश्राम करने के लिए कहा।

            शाम ढले जब हनुमान जी माता अंजनजी के पास पहुंचे तो उन्होंने सारी बात बताई। लेकिन सुकंत को बुलाने से पहले पवन सुत से सौगंध लेने को कहा। तब श्री हनुमान जी कहा कि वह श्री राम के चरणों की सौगंध लेते हैं कि वह सुकंत के प्राणों की रक्षा करेंगे। तब माता अंजन ने राजा को बुलाया। हनुमान जी ने पूछा कौन तुम्हें मारना चाहता है? तब सुकंत ने बताया कि श्री राम उन्हें मार डालेंगे। इतना सुनते ही माता अंजनजी हैरान रह गईं। उन्होंने कहा कि तुमने तो विश्वामित्र जी का नाम लिया था। तब राजा ने कहा कि नहीं वह तो मरवा डालना चाहते हैं लेकिन मारेंगे तो राम ही।

                          हनुमान जी ने राजा सुकंत को उनकी राजधानी में छोड़ा और श्री राम के दरबार में पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने राम जी से पूछा कि वह कहां जा रहे हैं। तब मर्यादा पुरुषोत्तम ने बताया कि वह राजा सुकंत का वध करने जा रहे हैं। तब हनुमान जी ने कहा प्रभू उसे मत मारिए। राम जी ने कहा कि वह तो अपने गुरु की सौगंध ले चुके हैं। अब पीछे नहीं हट सकते। हनुमान जी ने कहा प्रभु मैंने उसके प्राणों की रक्षा के लिए अपने इष्टदेव यानी कि आपकी सौगंध ली है। तब राम जी ने कहा कि ठीक है तुम अपना वचन निभाओ, मैं तो उसे मारूंगा।

            हनुमान जी राजा सुकंत को लेकर पर्वत पर पहुंचे और राम नाम का कीर्तन करने लगे। उधर राम जी राजा सुकंत को मारने के लिए उनकी राजधानी पहुंचे। लेकिन वह नहीं मिले तो वह उन्हें ढूंढते हुए पर्वत पर पहुंचे। वहां हनुमान राम मंत्र का जप कर रहे थे। राम जी को देखते ही सुकंत डर गये। उन्होंने कहा कि अब तो राम जी उसे मार ही डालेंगे। वह बार-बार हनुमान जी पूछता कि बच जाएंगे हम। तब उन्होंने कहा कि राम मंत्र का जप करते रहो और निश्चिंत रहो। भगवन नाम पर पूरा भरोसा रखो। लेकिन वह काफी डरे हुए थे तो हनुमान जी ने सुकंत को राम नाम मंत्र के घेरे में बिठा दिया। इसके बाद राम नाम जपने लगे।

                      राम जी ने राजा सुकंत को देखकर जब बाण चलाना शुरू किया तो वह राम नाम के मंत्र के आगे विफल हो जाते। राम जी हताश हो गए कि क्या करें? यह दृश्य देखकर श्री लक्ष्मण जी को लगा कि हनुमान जी भगवान राम को परेशान कर रहे हैं तो उन्होंने स्वयं ही हनुमान जी पर बाण चला दिया। लेकिन यह क्या, उस बाण से पवन सुत के बजाए श्री राम मूर्छित हो गए। यह देखते ही लक्ष्मण जी दौड़ पड़े और देखते हैं कि बाण तो हनुमान जी पर चलाया था लेकिन मूर्छित राम जी कैसे हो गये। तब उन्होंने देखा कि पवन सुत के हृदय में तो श्री राम बसते हैं।

              राम जी जैसे ही होश में आए वह हनुमान जी की ओर दौड़े। उन्होंने देखा कि उनकी छाती से रक्त बह रहा है। वह हनुमान जी का दर्द देख नहीं पा रहे थे। वह बार-बार उनकी छाती पर हाथ रखते और आंखें बंद कर लेते। पवन सुत को होश आया तो उन्होंने देखा कि राम जी आंखें बंद करके हनुमान जी के छाती पर बार-बार हाथ रखते हैं फिर हनुमान जी के सिर पर हाथ फेरते हैं। तब पवन सुत ने सुकंत को पीछे से निकाला और उसे अपनी गोद में बिठा लिया। तभी राम ने फिर से हनुमान जी के माथे पर हाथ फेरा लेकिन इस बार वहां पवन सुत की जगह राजा सुकंत थे। राम जी मुस्कराए और हनुमान जी बोल उठे कि नाथ अब तो आपने इनके सिर पर हाथ रख दिया है। अब तो सब कुछ आपके हाथ में हैं इसकी मृत्यु भी और जीवन भी। आप ही सुकंत के जीवन की रक्षा करें।

                  राम जी ने हनुमान जी से कहा कि जिसे तुम अपनी गोद में बिठा लो उसके सिर पर तो मुझे हाथ रखना ही पड़ेगा। लेकिन गुरु जी को क्या जवाब देंगे। तभी हनुमान जी को विश्वामित्र जी सामने से आते दिखाई पड़े। उन्होंने राजा सुकंत से कहा कि जाओ तब प्रणाम नहीं किया तो क्या हुआ, अब कर लो। राजा ने दौड़कर विश्वामित्र जी के चरणों में लोट गया। वह भी प्रसन्न हो गए और बोले राम इसे क्षमा कर दो। मैंने इसे क्षमा कर दिया क्योंकि संत का काम मिटाना नहीं बल्कि सुधारना होता है। यह भी सुधर गया है। उन्होंने सुकंत से पूछा कि संत का सम्मान न करने की सलाह तुम्हें किस कुसंग में मिली।

                 राजा सुकंत विश्वामित्र जी से कुछ कहते कि इससे पहले नारद मुनि प्रकट हो गये। उन्होंने सारी घटना कह सुनाई। तब विश्वामित्र जी ने पूछा कि नारद कि आपने ऐसी सलाह क्यों दी? तब नारद जी ने कहा कि अकसर ही लोग मुझसे पूछते थे कि राम बड़े या राम का नाम बड़ा। तो मैंने सोचा कि क्यों न कोई लीला हो जाए कि लोग अपने आप ही समझ लें कि भगवान से अधिक भगवान के नाम की महिमा है। 

                       यही है भगवान के नाम की महिमा और उनके भक्तों की भक्ति। मैं फिर कहता हूं कि नारायण तो अपने भक्तों के आधीन है, वे अपने भक्तों के सामने अपने वचन का मोल नहीं देखते। ऐसे भक्त वत्सल श्री हरि से स्नेह का नाता जोड़ने में हमें संकोच क्यों? हमें तो उनके श्री चरणों का अनुरागी बनकर सांसारिक कर्तव्यों का निर्वाह करना चाहिए। उनकी दासता स्वीकार करनी चाहिए, फिर देखिए, कभी आपका अमंगल नहीं होगा। मैं आपको इसी क्रम में आगे भक्त राज श्री उद्धव जी की कथा का श्रवण करवाऊंगा।

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वृष्णीनां प्रवरो मंत्री कृष्णस्य दयितः सखा ।शिष्यो बृहस्पतेः साक्षात् उद्धवो बुद्धिसत्तमः।।

उद्धवजी वृष्णिवंशियों में एक प्रधान पुरुष थे। वे साक्षात् ब्रहस्पतिजी के शिष्य और परम बुद्धिमान थे। उनकी महिमा के सम्बन्ध में इससे पढ़कर और कौन-सी बात कही जा सकती है कि वे भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे सखा तथा मंत्री भी थे। साथ ही वे भगवान कृष्ण द्वारा किए हुए भोजन को, जो जूठा बच जाता, वही खाते। यहां तक कि वे भगवान कृष्ण के द्वारा उतारे गए वस्त्र और आभूषण ही धारण करते।

                      उद्धव चरित्र श्रीमद भागवत का बड़ा ही मार्मिक प्रसंग है। प्रेम का दर्शन करवाता है उद्धव चरित्र। सूरदास जी महाराज ने भी उद्धव चरित्र का बहुत वर्णन किया है। या यूं कहा जाए, तो अनुचित नहीं होगा कि उद्धव जी ने ही कलियुग में सुर दास बनकर जन्म लिया था और ऐसा इसलिए हुआ था कि श्री ललिता ने उन्हें श्राप दे- दिया था। उद्धव, ललिता इत्यादि जितने भी राधा रानी या श्री कृष्ण के सखा है, वे सभी नित्य लीला के परिकर है। राधा कोई और नहीं, अपितु श्री नारायण के ही स्वरूप है और ऐसा उनको श्री दामा के श्राप के कारण लेना पड़ा। श्री प्रभु के जितने भी सखा है, नित्य गो लोक में निवास करते है और भगवान के अवतरित होने पर उनके लीला में सहयोग करने के लिए धरा धाम पर आते है।

                         ऐसे ही एक बार उद्धव जी श्री राधा जू से मिलने द्वारका से गोकुल आए और ललिता के घर पर चले गए। वहां उन्हें प्यास लग आई और ललिता घर में मौजूद नहीं थी। अतः उद्धव जी ने जूठा गिलास उठाकर पानी पी लिया। तभी ललिता देवी आ गई और उन्होंने उद्धव जी का उपहास कर दिया। बस उद्धव जी क्रोधित हो गए, उन्होंने ललिता जी को कहा कि तुम मलेच्छ की तरह आचरण करती हो, अतः मलेच्छ हो जाओ। इस पर ललिता देवी ने उन्हें भी श्राप दे दिया कि आपने आँखें रहते भी अंधे जैसा व्यवहार किया, अतः अंधे हो जाओ। इस कारण से उद्धव जी को इस कलियुग में सूरदास बन कर धरती पर आना पड़ा।

                  अब हम आते है उद्धव जी के जीवन चरित्र पर। एक बार  भगवान ने सोचा की ये उद्धव परम ज्ञानी है लेकिन अगर इस पर भक्ति रूपी रंग चढ़ जाये तो ज्ञान रूपी चादर बहुत अच्छी सुशोभित होगी। भगवान सोचने लगे कि, तो क्या मैं इस उद्धव को भक्ति का उपदेश दूँ?

फिर भगवान सोचा कि, नहीं-नहीं, भक्ति उपदेश देने से नहीं बल्कि भक्ति का क्रियात्मक रूप होना चाहिए। क्योंकि ज्ञान पुरुषार्थ(मेहनत) का फल है और भक्ति कृपा साध्य है। बिना भगवान की कृपा के भक्ति नहीं मिलती है।

                        भगवान ने सोचा की अगर कहीं भक्ति का दर्शन हो सकता है तो वह स्थान है वृंदावन। मैं इस उद्धव को वृंदावन भेजूंगा। भगवान प्रतिदिन सुबह उठकर यमुना का स्नान करने के लिए जाते थे।  आज भगवान जब यमुना का स्नान करने के लिए गए तो यमुना जी में एक कमल का फूल बहता हुआ आ रहा था । ये राधा रानी की प्रसादी थी। राधा रानी प्रतिदिन यमुना में भगवान के लिए फूल बहाती थी और फूल बहाते समय राधा जी के मन में ये बात आती थी की मेरे गोविंद यमुना का स्नान करने के लिए आते होंगे और इस फूल को वो देखेंगे, तो उन्हें मेरी याद अवश्य आएगी।

           आज भगवान ने उस फूल को सुंघा और यमुना में मूर्छित होने लगे। पास में खड़े थे उद्धव जी।  उद्धव जी ने जब ये देखा तो तुरंत दौड़कर गए और अपने हाथ का सहारा दिया भगवान को।  वे श्री राधा रमण जू को महलों में लेकर आ गए । महल में आकर उन्होंने देखा कि श्री कृष्ण की आँखों में आज आंसू हैं।  क्योंकि उद्धव जी ने भगवान को कभी रोते हुए नहीं देखा था। आज तो माधव के नयनों से अश्रु धारा बहती जा रही थी। ऐसे में उद्धव जी ने पूछा कृष्ण, आप भी किसी को याद करते हुए रोते हो क्या? भगवान उद्धव से कहने लगे-  उद्धव मोहे ब्रज बिसरत नाहीं। मैं अपने ब्रज को भूल नहीं पा रहा हूँ।

मैं एक क्षण के लिए भी ब्रज को भूल नहीं पा रहा हूँ। मैं अपनी माँ और पिता से कहकर आया था की मैं शीघ्र ही ब्रज आऊंगा।  लेकिन मैं जा नहीं सका।  मेरी गौए, मेरी गोपियाँ और मेरे ग्वाल बाल कितना स्मरण करते हैं।  ऐसा कहते हुए भगवान रोने लगे।  उद्धव ने भगवान के आंसू पोंछे और श्री कृष्ण को वेदों की बात बताने लगे। उन्हें समझाने लगे कि संसार में सभी रिश्ते-नाते बस लौकिक है, इसपर रोना क्यों? इसपर श्री कृष्ण ने कहा कि आप तो अज्ञानी हो, आप गोकुल जाओ और वहां मेरे विरह में व्याकुल वृज बासी को समझाओ।

            मेरी गोपियाँ, मेरी प्रेयसियाँ इस समय बड़े ही कष्ट और यत्न से अपने प्राणों को किसी प्रकार रख रही हैं। मैंने उनसे कहा था कि ‘मैं आऊँगा।’ वही उनके जीवन का आधार है। उद्धव! और तो क्या कहूँ, मैं ही उनकी आत्मा हूँ। वे नित्य-निरन्तर मुझमें ही तन्मय रहती हैं। आपने उन्हें जो समझा दिया और वे विरह-वेदना से उभर गई, मेरे कष्ट भी मिट जाएंगे। जब भगवान श्रीकृष्ण ने यह बात कही, तब उद्धवजी बड़े आदर से अपने स्वामी का सन्देश लेकर रथ पर सवार हुए और नंद गाँव के लिये चल पड़े ।

             संधि काल को उद्धव जी महाराज वृंदावन की सीमा पर पहुंचे ,तो उनके पीतांबर कांटों से उलझ गए, मानो कह रहे हो। हे उद्धव, यह गोकुल है, अभी भी लौट जाओ, नहीं तो तुम्हारे ज्ञान की चादर चीथरे-चीथरे हो कर फट जाएगी। परन्तु उन्होंने समझा नहीं, क्योंकि उनके आँखों पर ज्ञान की चादर पड़ी हुई थी। उद्धव जब गोकुल पहुंचे, ग्वाल बालों ने देखा की कृष्ण आ गए हैं। ये ग्वाल बाल प्रतिदिन गाँव की सीमा पर बैठ जाते थे और कृष्ण जी का इंतजार करते थे। जब कृष्ण जी नहीं आते थे तो ये शाम को नंद बाबा के घर जाकर मैया-यशोदा और नंद बाबा से कहते थे- बाबा! मैया! कोई बात नहीं आज कृष्ण नहीं आये तो-तू रोना मत, तू चिन्ता मत करना। क्योंकि आज कृष्ण नहीं आये हैं तो कोई बात नहीं कल आ जायेंगे। इस तरह से ये माता पिता को सांत्वना देते थे।

       उद्धव जी ने रथ में बैठे हुए ग्वाल बालों से पूछा कि- भैया! नंद भवन कहाँ हैं? सभी ग्वाल बाल कहने लगे कि आप कौन हैं? देखने में तो एकदम कृष्ण जी जैसे दिखाई पड़ते हो। उद्धव जी ने कहा- भैया! मैं तुम्हारे कृष्ण का मित्र हूँ और उन्होंने ही मुझे तुम्हारे पास भेजा है। अब मुझे नंद भवन लेकर चलो। इतना सुनते ही ग्वाल बाल उद्धव जी को लेकर नंद भवन पहुंच गए । जैसे ही नंद भवन के द्वार पर पहुंचे, तो देखा। द्वार पर नंद बाबा जी मूर्छित पड़े हुए हैं। उद्धव जी महाराज ने अपने हाथ का सहारा देकर नंद बाबा जी को उठाया।

नंद बाबा जी कहते हैं- लाला तू आ गयो।

उद्धव जी ने कहा- मैं आपका लाला नहीं हूँ आपके लाला का मित्र हूँ। मेरा नाम है उद्धव।

नंद बाबा कहने लगे- क्या हमारे कन्हैया नहीं आये? आज मेरे लाला नहीं आये?

              जब माँ यशोदा ने द्वार पर कन्हैया का नाम सुना तो लाठी टेकती हुई आई क्योंकि बुढी हो गई थी 80 साल की। और द्वार पर उद्धव को देखा तो उद्धव को कसकर पकड़कर झकझोर कर पूछा- मेरो कनुवा कहाँ हैं? मेरा लाला कहाँ है? उद्धव जी ने कहा की मैया! मैं तेरे लाला का मित्र हूँ उद्धव और उसका सन्देश लेकर आया हूँ।

जब माँ ने सुना तो हाथ पकड़कर उद्धव को अंदर लेकर गई और बिठाकर पूछा- बता उद्धव मेरे लाला ने क्या सन्देश भेजो है? उद्धव ने कहा- माँ! तेरे लाला ने तेरे लिए प्रणाम भेजी है।

           जैसे ही माँ ने सुना तो हंसने लगी- की बस केवल प्रणाम भेजो है। ये तो मैं कितने दिन से प्रणाम सुन रही हूँ। क्या वो वहां से प्रणाम ही भेजता रहेगो। एक बार माँ से मिलने नहीं आयेगो। देख उद्धव मैं अपने लाला के लिए दिन-रात रोती रहती हूँ और अगर रोते-रोते मैं अंधी हो गई तो इन आँखों से अपने लाल का दर्शन भी नहीं कर पाऊँगी। मेरे लाला से कहियो की एक बार अपनी माँ से आकर मिल ले। माँ उद्धव को अब वहां पर लेकर गई जहाँ भगवान श्री कृष्ण का पलना था। और उस पालने को दिखाकर यशोदा मैया कहने लगी- उद्धव तू शोर मत करियो मेरो लाला सो रयो है। फिर कहती है- नहीं, नहीं वो तो मथुरा में गया हुआ है ना।

       फिर यशोदा मैया उद्धव को उस ऊखल के पास लेकर गई । जिस से माँ ने कन्हैया को एक बार माखन चोरी करने पर बाँध दिया था। वे कहने लगी, देख उद्धव, ये वही ऊखल है, जिससे मैंने कान्हा को माखन की मटकी फोड़ने पर बाँध दिया था। तो क्या उस दिन की बात से नाराज होकर मेरा लाला , मेरा कनुवा मुझसे रूठ गया है जो मथुरा में जाकर बैठ गयो है। देख तू उद्धव मेरे लाला से जाकर कहना की एक बार मुझे माफ़ कर दे और बस एक बार ब्रज आ जाए। 


इस प्रकार से रोते हुए यशोदा मैया के आंसू को उद्धव ने पोंछे। रात्रि भर कृष्ण चर्चा चलती रही। कब रात बीत गई उद्धव को भी पता नहीं चला। प्रातः काल हो गई। सूर्य देव उदय हो गए। उद्धव ने नंद बाबा से कहा की आप मुझे यमुना जी का स्नान करने की आज्ञा दो। गोपियों ने आज नंद भवन के द्वार पर एक रथ खड़ा देखा। गोपियों को लगा की क्या कृष्ण आ गए हैं?

             फिर सोचने लगी कि नहीं-नहीं! अगर श्यामसुंदर आते तो हमसे जरूर मिलकर जाते। पहले तो वो क्रूर अक्रूर आया था जो हमारे प्यारे को लेकर चला गया। अब तो केवल हमारे प्राण बचे हैं। तो क्या कोई हमारे प्राण लेने आया है। क्या कोई कंस का पिंड दान करने के लिए हमारे प्राण लेने आया है। ऐसा कहकर गोपियाँ राधा रानी को साथ लेकर यमुना के तट पर आ गई । उद्धव जी भी यमुना के तट पर आ गए। एक और गोपियाँ खड़ी हैं और एक और उद्धव।  उसी समय एक भ्रमर(भौंरा) आ गया और उस भ्रमर की आदत कभी तो उड़कर गोपियों की और जाये और कभी उद्धव जी की और जाये। जब गोपियों की और उड़कर भ्रमर आया तो गोपियों ने भ्रमर गीत गाया।

गोपी कहने लगी-  भ्रमर तू उस धूर्त कृष्ण का धूर्त मित्र है ना। हमें तुझसे घृणा हो गई है। जैसे तू फूलों का रस लेने के बाद उनका त्याग करके चला जाता है ऐसे ही कृष्ण ने हमारा त्याग कर दिया। तू हमारा स्पर्श मत कर।

कुछ संत कहते हैं की ये भ्रमर और कोई नहीं स्वयं श्री कृष्ण जी ही हैं।

        जब उद्धव जी ने भ्रमर गीत सुना तो उद्धव ने सोचा की यहाँ तो कोई दिखाई नहीं देता। तो ये गोपियाँ बातचीत किससे कर रही हैं। उद्धव जी महाराज गोपियों के पास गए और कहने लगे, हे गोपियों मैं तुम्हारे कृष्ण का मित्र हूँ। और तुम्हारे लिए कुछ सन्देश लेकर आया हूँ। गोपियों ने जब सुना,  कहने लगी, हे उद्धव! आपने बड़ी कृपा की जो कृष्ण जी का सन्देश लेकर आये। लेकिन आप पहले अपने मुख से ये बात बताओ की कृष्ण ने स्वयं आने के लिए कहा भी या नहीं। क्योंकि उनको देखे बिना हमारे एक-एक पल एक-एक युग की तरह बीतता है। और ये भी बताइये की क्या सन्देश भेजा है। गोपियाँ उद्धव को घेरकर खड़ी हो गई।

             इतना सुनना था कि उद्धव अपने ज्ञान का पिटारा गोपियों के आगे खोलने लगे और कहने लगे कि भगवान ने आपके लिए कहा है – हे गोपियों तुम अपनी नासिका के अग्र भाग पर उस ब्रह्म का ध्यान करो तो तुम्हें अपने अंतः करण में चतुष्ठ: में श्री कृष्ण के दर्शन होंगे। गोपियों ने जब ये ज्ञान की बात सुनी तो हँसने लगी –  और कहने लगी।  अच्छा तो हमारे प्यारे ने ये योग की चिट्ठी ब्रज में भेजी है। इस पाती को लेकर हम क्या करेंगे। सुनो उद्धव 

निस दिन बरसत नैन हमारे ।सदा रहत पावस ऋतु हम पर जब ते श्याम सिधारे ॥१॥

अंजन थिर न रहत अँखियन में कर कपोल भये कारे ।कन्चुकिपट सूखत नहीं कबहुँ उरबिच बहत पनारे ॥२॥

आँसू सलिल भए पग थाके बहे जात सित तारे ।सूरदास अब डूबत है ब्रज काहे न लेत उबारे ॥३॥

              सूरदास के पदों में गोपियों का विरह भाव स्पष्ट झलकता है। इस प्रसिद्ध पद में कृष्ण के वियोग में गोपियों की क्या दशा हुई, उसी का वर्णन सूरदास ने किया है। कृष्ण को संबोधन देते हुए गोपियां कहती हैं कि हे कन्हाई! जब से तुम ब्रज को छोड़ कर मथुरा गए हो, तभी से हमारे नयन नित्य ही वर्षा के जल की भांति बरस रहे हैं अर्थात् तुम्हारे वियोग में हम दिन-रात रोती रहती हैं। रोते रहने के कारण इन नेत्रों में काजल भी नहीं रह पाता अर्थात् वह भी आंसुओं के साथ बहकर हमारे कपोलों को भी श्यामवर्णी कर देता है। हे श्याम! हमारी कंचुकि आंसुओं से इतनी अधिक भीग जाती है कि सूखने का कभी नाम ही नहीं लेती। फलतः वक्ष के मध्य से परनाला-सा बहता रहता है।

इन निरंतर बहने वाले आंसुओं के कारण हमारी यह देह जल का स्रोत बन गई है, जिसमें से जल सदैव रिसता रहता है। सूरदास के शब्दों में गोपियां कृष्ण से कहती हैं कि हे श्याम! तुम यह तो बताओ कि तुमने गोकुल को क्यों भुला दिया है।

         फिर कृष्ण की लीला गोपियों को याद आने लगी। बिन गोपाल बैरन भइ कुंज, तब ये लता लगती अति शीतल¸ अब भइ विषम ज्वाल की पुंज।

गोपाल के बिना हमें ये ब्रज की कुंज अपनी बैरी लगती हैं। जो लता शीतलता प्रदान करती हैं उनमें से अब आग की लपटे निकल रही हैं। उद्धव हम तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म का उपदेश लेकर क्या करें! हमें तो वो शरद् की पूर्णिमा की रात्रि याद आती है जब हमने भगवान के उस रसमय रूप का दर्शन किया था। और भगवान ने हमारे साथ रास रचाया था। वह पल हमें एक क्षण के लिए भी नहीं भूलता और ना ही हम उसे भूलना चाहती हैं।

                 तुम कहते हो की तुम कृष्ण के मित्र हो। यदि मित्र होते तो हमारी विरह दशा को समझ पाते। कैसे मित्र हो तुम कृष्ण के? तुम्हें हमारी दशा समझ नहीं आती। उद्धव ने सुना और कहा – गोपियों तुम समाधि लगाकर भगवान का ध्यान करो। उस निर्गुण और निराकार ब्रह्म का ध्यान करो। भगवान ने ये सन्देश दिया है। इतना सुनते ही एक गोपी कहने लगी, उद्धव तुम यहाँ से चले जाओ। तुम गलती से ब्रज में आ गए हो। तुम योग की बात कर रहे हो तुम्हें जरा भी लज्जा नहीं आती। तुम इतने चतुर हो गए हो की उचित-अनुचित का तुम्हें ज्ञान ही नहीं। अपने निर्गुण ब्रह्म का राग अलापना बंद करो। अरे जो है ही नहीं वही निर्गुण है। जिसमें कोई गुण नहीं है जिसमें कोई रस नहीं है। वो क्या ख़ाख दिखेगा।

          दूसरी गोपी कहने लगी – जैसे कुत्ते की पूंछ को किसी भांति सीधा करने का प्रयास करो, लेकिन उसे कोई भी सीधा नहीं कर सकता। जैसे कौवा कितना भी प्रयत्न करें वो अभक्ष्य चीजे खाना नहीं छोड़ता। जैसे काले कंबल को कितना भी धो लो लेकिन उसका रंग तो काला ही रहेगा ना।  ऐसे ही उस काले(कृष्ण) का रंग हम पर चढ़ गया है तुम लाख कोशिश कर लो वो रंग अब उतरने वाला नहीं है। एक और गोपी बोली, उद्धव! एक बात कहूं ! आज हम धन्य हो गई हैं क्योंकि एक तो तुम्हें हमारे प्यारे कृष्ण ने हमारे लिए भेजा है और दूसरे अपनी आँखों से तुमने हमारे प्यारे कृष्ण को देखा है। जिन नेत्रों से तुमने कृष्ण को देखा है उन नेत्रों से तुम मुझे झांक रहे हो।

            इतना सुनते ही उद्धव ने फिर कहा, हे गोपियों! तुम जान बूझकर बावली मत बनो। तत्व(निर्गुण ब्रह्म) के भजन से तुम भी इसी प्रकार तत्व मय(निर्गुण ब्रह्म में रमण करने वाली) हो जाओगी। जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सोना हो जाता है। तुम सब सांसारिक मोह बंधन छोड़ दो।

            इतनी बात सुनते ही गोपी उद्धव का उपहास उड़ाने लगी- हे उद्धव! तुम्हारी तो अच्छी-खासी सद्बुद्धि थी, किन्तु निर्गुण ब्रह्म के चक्कर में पड़कर तुमने उसे भी खो दिया है। तुम्हारे इस उपदेश के कारण तुम्हारी ब्रज में हंसी हो रही है। तुम इसे अपने अंदर ही छिपाकर रखो, किसी को मत दिखाओ। तुम्हारी उलटी-सीधी बातें कौन सुनता रहेगा। यदि तुम ग्वालिन को योग सिखाने का काम करोगे तो लोग तुम्हें मूर्ख ही कहेंगे। तुम्हें एक बात बताएं उद्धव:

अँखियाँ हरि दर्शन की भूखी। अँखियाँ हरि दर्शन की प्यासी।

                    हमारी आँखें तो केवल श्री हरि के दर्शनों के लिए ही अत्यधिक भूखी हैं, हमारी आँखें तो केवल हरि दर्शन की प्यासी हैं। जब से श्यामसुंदर ब्रज से गए हैं ना उद्धव तभी से हमारा मन उनमें अटक गया है। हमने बहुत निकलने की कोशिश की लेकिन मन वहां से हट ही नहीं रहा है। उद्धव वैसे तो हमारे सारे अंग दुखी हैं लेकिन विशेष रूप से हमारी आँखें रात-दिन उनके जाने के कष्ट से दुखती रहती हैं। एक क्षण के लिए भी चैन से नहीं बैठती। बस उनके आने के मार्ग देखती रहती हैं। एक क्षण के लिए भी पालक नहीं झपकती की ना जाने कब श्यामसुंदर आ जाये और हम उनके दर्शन से वंचित रह जाए। फिर एक सखी कहती है – देखो, आओ सखियों! मथुरा से पंडित जी योग सीखने आये हैं। जो पंडित खा पीकर मस्त रहते है वे योग की चिट्ठी लेकर आये हैं।

                 गोपियों की बातें सुनकर  उद्धव जी ने कहा, हे गोपियों निर्गुण ज्ञान के बिना कहीं भी, कुछ भी सुख नहीं है। तुम लोग निर्गुण को छोड़कर सगुण के पीछे क्यों दौड़ती हो? अच्छा चलो , ये बताओ वो सगुण ब्रह्म किसके पास, और फिर तुम्हें उससे क्या मिल गया? केवल विरह ही तो मिला जिसे तुम दिन रात भोग रही हो। उनकी बाते सुनकर गोपियाँ कहने लगी- उद्धव तुमने बहुत बोल लिया। अब एक शब्द ना बोलना। कृष्ण की आराधना छोड़कर निर्गुण की बात कहने से हमारे प्राणों पर आघात होता हैं, फिर चाहे तुम्हारे लिए ये हंसी की बात हो। हमें हर पल मोहन का ध्यान रहता हैं। उनके दर्शनों के बिना तो जिन ही बेकार हैं। हमें तो रात-दिन श्याम का ही स्मरण रहता हैं, तुम्हारे योग की अग्नि में यहाँ कौन जलेगा।

              अरे उद्धव! तुम हरि को अंतर्यामी बताते हो, पर वे काहे के अंतर्यामी हैं, अगर अंतर्यामी होते तो क्या वे यह न जानते की उनके बिना हम गोपियाँ किस प्रकार विरह में व्याकुल होकर एक-एक पल काट रही हैं? इतने दुखी होने पर भी वो एक बार हमसे मिलने नहीं आये। तुम निर्गुण ब्रह्म की बात कर रहे हो, यह बताओ वह निर्गुण ब्रह्म रहता कहाँ हैं? वो किस देश का वासी हैं। उसकी माँ कौन हैं? पिता कौन हैं? वह किस नारी का दास हैं। उसका रंग कैसा हैं? उसका वेश कैसा हैं? वह कैसा श्रृंगार करता हैं और उसकी रुचि किस चीज में हैं?

         गोपियाँ कहने लगी, हे उद्धव! अब तुम्हारे पास हमारी इन बातों का कोई जवाब नहीं हैं। हमें तो लगता हैं एक ओर वो कृष्ण हैं जिसके दास ब्रह्मा हैं। दूसरी ओर वो कुब्जा हैं जो कंस की दासी हैं। वो कुब्जा से प्रेम करके मथुरा में रह रहे हैं। अब तो कृष्ण मथुरा वासी हो गए हैं ना! अरे उस कन्हैया ने क्या सोचकर कुब्जा से प्रेम कर लिया। उन्हें हमारी जरा भी याद नहीं आई। 

उद्धव जी बोले – गोपियों! हरि का सन्देश सुनो! हम तुम पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से मिलकर बने हैं। मैं जिस ब्रह्म की बात कर रहा हूँ ना, उसकी ना कोई माँ हैं, ना कोई पिता हैं। ना स्त्री हैं। ना उसका कोई नाम हैं और ना कोई रूप ठिकाना हैं।

               गोपियाँ कहने लगी, उद्धव ऐसी बात मत कहो। सुनो हमारे भगवान कैसे हैं। तुम्हारे नहीं दिखते होंगे ठीक हैं लेकिन हमारे भगवान को देखो। हमारे भगवान सुबह उठकर माखन चुराने के लिए गोपियों के घर चले जाते है। फिर वो गौए चराने जाते हैं। और जब श्याम को वो लौटते हैं ना तो उनकी शोभा देखकर हम अपना तन मन भूल जाती हैं । तू योग की बात करता हैं ना तेरा योग और निर्गुण ब्रह्म की बात हमें ऐसे कष्ट दे रही हैं जैसे जले पे नमक। योगी जिस ब्रह्म तक कभी पहुंचा नहीं होगा उसी भगवान को माँ माखन के चुराने पर ऊखल से बाँध देती है। उद्धव काश हमारे पास दस-बीस मन होते। एक मन हम तुम्हारे उस निर्गुण ब्रह्म को भी दे देती।

उधौ मन ना भए दस बीस। एक हतौ सौ गयौ श्याम संग, को आराधे ईस।।

इंद्री शिथिल भइ केशव बिन, ज्यौं देही बिन सीस। आसा लगि रहित तन स्वाहा, जीवहिं कोटि बरिस।

तुम तौ सखा श्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस। सूर हमारे नंद-नंदन बिन, और नहीं जगदीश॥॥

                    अब थक हार कर गोपियाँ व्यंग्य करना बंद कर उद्धव को अपने तन मन की दशा कहने लगी। उद्धव हतप्रभ हो गए, भक्ति के इस अद्भुत स्वरूप से। हे उद्धव हमारे मन दस बीस तो हैं नहीं, एक था वह भी श्याम के साथ चला गया। अब किस मन से ईश्वर की आराधना करें? उनके बिना हमारी इन्द्रिय शिथिल हैं, शरीर मानो बिना सिर का हो गया है, बस उनके दर्शन की क्षीण सी आशा हमें करोड़ों वर्ष जीवित रखेगी। तुम तो कान्हा के सखा हो, योग के पूर्ण ज्ञाता हो। तुम कृष्ण के बिना भी योग के सहारे अपना उद्धार कर लोगे। हमारा तो नंद कुमार कृष्ण के सिवा कोई ईश्वर नहीं है।


गोपियाँ कहने लगी, हे उद्धव! हम तुम्हारी बात केवल एक शर्त पर मान सकती हैं- यदि तुम अपने निर्गुण ब्रह्म को मोर मुकुट और पीतांबर धारण किए हुए दिखा दो तो।

उद्धव सच मानना हम तुम्हारी योग के योग्य नहीं हैं। हम कभी पढ़ने लिखने स्कूल नहीं गई तो हम ये सब बातें क्या जाने। पर उद्धव जब हम आँख बंद करती हैं तो हमें अपने भगवान की मूरत सामने दिखाई पड़ती है। तुम्हें नहीं दिखता होगा लेकिन हमें तो दिखता है।

                 इसके बाद एक गोपी परिहास करते हुए कहने लगी- उद्धव! हम तुम्हारी योग को ले तो लें पर यह तो बताओ कि योग का करते क्या हैं? इसे ओढ़ा जाता है या बिछाया जाता है या किसी स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ की तरह खाया जाता है या पिया जाता है। ये कोई खिलौना है क्या या कोई सुंदर आभूषण है?  उद्धव हमें तो केवल नंद नंदन चाहिए जो हमारे मन को मोहने वाले और हमारे प्राणों के जीवन हैं। उद्धव हमारे कृष्ण गोवर्धन पर्वत धारी हैं। उनके हाथ में बांस की बंसी सदा रहती है। वो वृंदावन की भूमि पर नंगे पैर रहते हैं। लेकिन उनके जाने के बाद बस हम उनकी प्रतीक्षा में बैठी रहती हैं। उन्हीं को याद करती रहती हैं।

                   एक गोपी श्री राधा रानी की विरह दशा का वर्णन करके कहने लगी कि, हे उद्धव! अन्य गोपियाँ तो जैसी है वो तो ठीक हैं पर राधा की स्थिति सबसे खराब है। राधा जी बहुत दुखी और मलिन हैं। वे हमेशा नीचे की ओर मुख करके बैठी रहती हैं। आँखें उठकर भी नहीं देखती हैं। उनकी करुणामय दशा उस दुखी जुआरी की भांति है जो जुआ में अपनी सारी पूंजी हार गया हो। उनके बाल बिखरे हुए हैं। मुख इस प्रकार कुम्हलाया हुआ है। जैसे तुषार की मारी हुई कमलिनी हो। और उद्धव तुम्हारी उपदेश सुनकर वो एकदम मृत प्राय हो गई है, क्योंकि एक तो विरह-व्यथा से पहले ही मरणासन्न थी, दूसरे उद्धव जी के इन उपदेश ने आकर जला दिया है। वे श्याम सुंदर के बिना कैसे जी पाएंगी?

               गोपियों की बातें सुनकर उद्धवजी निरुत्तर हो गए। इसके बाद वे  गोपियों की विरह-व्यथा मिटाने के लिये महीनों तक वहीं रहे। वे भगवान श्रीकृष्ण की अनेकों लीलाएँ और बातें सुनाकर व्रज-वासियों को आनंदित करते रहे । नंद बाबा के व्रज में जितने दिनों तक उद्धवजी रहे, उतने दिनों तक भगवान श्रीकृष्ण की लीला की चर्चा होते रहने के कारण व्रज वासियों को ऐसा जान पड़ा, मानो अभी एक ही क्षण हुआ हो ।

                      भगवान के परम प्रेमी भक्त उद्धवजी कभी यमुना तट पर जाते, कभी वनों में बिहरते और कभी गिरिराज की गलियों में विचरते। कभी रंग-विरंग के फूलों से लदे हुए वृक्षों में ही रम जाते और यहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने कौन-सी लीला की है, यह पूछ-पूछकर व्रज वासियों को भगवान श्रीकृष्ण के लीला के स्मरण में तन्मय कर देते ।

               गोपियों का प्रेम देखकर उद्धव जी गोपियों को नमस्कार करने लगे। इस पृथ्वी पर केवल इन गोपियों का ही शरीर धारण करना श्रेष्ठ एवं सफल है; क्योंकि ये सर्वात्मा भगवान श्रीकृष्ण के परम प्रेममय दिव्य महा भाव में स्थित हो गयी हैं। प्रेम की यह ऊँची-से-ऊँची स्थिति संसार के भय से मुमुक्षु जनों के लिये ही नहीं, अपितु बड़े-बड़े मुनियों—मुक्त पुरुषों तथा हम भक्तजनों के लिये भी अभी वांछनीय ही है। हमें इसकी प्राप्ति नहीं हो सकी। सत्य है, जिन्हें भगवान श्रीकृष्ण की लीला-कथा के रस का चस्का लग गया है, उन्हें कुलीनता की, विजाति समुचित संस्कार की और बड़े-बड़े यज्ञ- याज्ञो में दीक्षित होने की क्या आवश्यकता है ? अथवा यदि भगवान की कथा का रस नहीं मिला, उसमें रुचि नहीं हुई, तो अनेक महा कल्पों तक बार-बार ब्रह्मा होने से ही क्या लाभ ?

              कहाँ ये वनचरी आचार, ज्ञान और जाति से हीन गाँव की गँवार ग्वालिनें और कहाँ सच्चिदानंद घन भगवान श्रीकृष्ण में यह अनन्य प्रेम! अहो, धन्य है! धन्य हैं! इससे सिद्ध होता है कि कोई भगवान के स्वरूप और रहस्य को न जानकर भी उनसे प्रेम करें, उनका भजन करें, तो वे स्वयं अपनी शक्ति से अपनी कृपा से उनका परम कल्याण कर देते हैं; ठीक वैसे ही, जैसे कोई अनजान में भी अमृत पी ले तो वह अपनी वस्तु-शक्ति ही पीने वाले को अमर बना देता है । भगवान श्रीकृष्ण ने रासोत्सव के समय इन व्रजांगनाओं के गले में बाँह डाल-डालकर इनके मनोरथ पूर्ण किए। इन्हें भगवान ने जिस कृपा-प्रसाद का वितरण किया, इन्हें जैसा प्रेम दान किया, वैसा भगवान की परम प्रेमवती नित्य संगिनी वक्षःस्थल पर विराजमान लक्ष्मी जी को भी नहीं प्राप्त हुआ। कमल की-सी सुगन्ध और कांति से युक्त देवांगनाओं को भी नहीं मिला। फिर दूसरी स्त्रियों की तो बात ही क्या करें ?

                 मेरे लिये तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृंदावन धाम में कोई झाड़ी, लता अथवा ओषधि—जड़ी-बूटी ही बन जाऊँ! अहा! यदि मैं ऐसा बन जाऊँगा, तो मुझ इन व्रजांगनाओं की चरण धूल निरन्तर सेवन करने के लिये मिलती रहेगी। इनकी चरण-रज में स्नान करके मैं धन्य हो जाऊँगा। धन्य हैं ये गोपियाँ! देखो तो सही, जिनको छोड़ना अत्यन्त कठिन है, उन स्वजन-सम्बन्धियों तथा लोक-वेद की आर्य-मर्यादा का परित्याग करके इन्होंने भगवान की पदवी, उनके साथ तन्मयता, उनका परम प्रेम प्राप्त कर लिया है—औरो की तो बात की क्या—भगवद् वाणी, उनकी निःस्वासरूप समस्त श्रुतियां, उपनिषदों भी अब तक भगवान के परम प्रेममय स्वरूप को ढूँढती ही रहती हैं, प्राप्त नहीं कर पातीं ।

                  स्वयं भगवती लक्ष्मी जी जिनकी पूजा करती रहती हैं; ब्रह्मा, शंकर आदि परम समर्थ देवता, पूर्णकाम आत्माराम और बड़े-बड़े योगेश्वर अपने हृदय में जिनका चिंतन करते रहते हैं, भगवान श्रीकृष्ण के उन्हीं चरणारविन्दों को रास-लीला के समय गोपियों ने अपने वक्षःस्थल पर रखा और उनका आलिंगन करके अपने हृदय की जलन, विरह-व्यथा शान्त की । नंद बाबा के व्रज में रहने वाली गोपांगनाओं की चरण-धूल को मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ—उसे सिर पर चढ़ाता हूँ। अहा! इन गोपियों ने भगवान श्रीकृष्ण की लीला कथा के सम्बन्ध में जो कुछ गान किया है, वह तीनों लोगों को पवित्र कर रहा है और सदा-सर्वदा पवित्र करता रहेगा’ ।

                  इस प्रकार  महीनों तक व्रज में रहने के बाद उद्धवजी अब मथुरा जाने के लिये निकले। लेकिन यह क्या? जब वे मथुरा को लौटे, उनकी दशा ही बदल चुकी थी। बाल बिखरे हुए थे और पूरा शरीर व्रज धूल से लिपटा हुआ था। कपड़े फटे हुए थे और आँखों से अश्रु धारा बह रही थी। वे गिरते-पड़ते जैसे-तैसे गोकुल से मथुरा पहुंचे। जो उद्धव महा-पंडित बनते थे, उनकी पंडिताई खो गई थी। उनका तो प्रेमी का सा हाल हो गया था:-

उधो सुधो है चल्यो सुन गोपी के बोल, ज्ञान बजाये डुब डुबी और प्रेम बजाये ढोल ।।

                      कृष्ण के पास जाकर उद्धव जी कहने लगे हे कृष्ण तुम निष्ठुर हो गए हो। तुम अपने माता-पिता, ग्वाल बाल और प्रेमी गोपियों को भूलकर यहाँ बैठे हो। व्रज वासियों की प्रेममयी भक्ति का उद्वेग, जैसा उन्होंने देखा था, कह सुनाया। कृष्ण जी अब जान गए की मेरा उद्धव अब ज्ञानी ही नहीं रहा, प्रेमी भक्त भी बन गया हैं । कृष्ण जी कहते हैं- ब्रज वासी वल्लभ सदा मेरे जीवन प्राण।  ताको निमिष न बिसरहोँ मोहे नंद राय की आन।

मुझे ब्रज वासी अपने प्राणों से भी प्यारे हैं। मुझे अपने पिता नंद बाबा की सौगंध है यदि मैं इनको एक क्षण के लिए भी भूलता हूँ तो।

                    श्री उद्धव भगवान श्री कृष्ण के नित्य परिकर है। वे माधव को बचपन से ही अपना आराध्य मानते आए थे। परन्तु वे जब से गोकुल से लौटे, उनकी भक्ति में प्रेम की भी भी मिठास मिल गई। भगवान और उनके भक्त की कथा अमृत रस के समान है, जो हमारी आत्मा को तृप्त कर देती है। इसी संदर्भ में मैं आपको आगे भीष्म पितामह की कथा सुनाऊंगा।

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क्रमशः-


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