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मदन मोहन" मैत्रेय

@केशव

नाम-मदन मोहन "मैत्रेय पिता-श्री अमर नाथ ठाकुर रतनपुर अभिमान, दरभंगा, बिहार रतनपुर 847307 आप की पुस्तक कविता संग्रह "वैभव विलास-काव्य कुंज""भीगी पलकें" एवं "अरुणोदय" तथा उपन्यास "फेसबुक ट्रैजडी" "ओडिनरी किलर" एवं "तरुणा" पेपर बैक में प्रकाशित हो चुकी है। तथा आप अभी "भक्ति की धारा-एकाकार विश्वरुप स्वरुप" पर कार्य कर रहे हैं।

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भक्ती की धारा-संभवा एकाकार स्वरुप विश्वरुप"....(पूर्ण पुस्तक)

भीष्म तो अपनी प्रतिज्ञा से हो गए, अन्यथा उनका नाम तो देवव्रत था। शांतनु और गंगा की आठवीं संतान और पिता के आज्ञाकारी। परशुराम शिष्य भीष्म साधारण नहीं थे, वे अजेय योद्धा थे। वे ऐसे वीर योद्धा थे कि उन्होंने अपने गुरु परशुराम को ही हरा दिया था। लेकिन वे सिर्फ योद्धा ही नहीं थे, वरण वे नारायण के भक्त भी थे। आगे मैं उनके व्यक्तित्व और उनकी भक्ति के बारे में बताता हूं।

                    भीष्म पितामह आदर्श पितृ-भक्त, आदर्श सत्य प्रतिज्ञ, शास्त्रों के महान ज्ञाता तथा परम भगवद् भक्त थे। इनके पिता भारत वर्ष के चक्रवर्ती सम्राट महाराज शांतनु तथा माता भगवती गंगा जी थीं। महर्षि वशिष्ठ के शाप से ‘द्यौ’ नामक अष्टम वसु ही पितामह भीष्म के रूप में इस धरा धाम पर अवतीर्ण हुए थे। बचपन में इनका नाम देवव्रत था। एक बार इनके पिता महाराज शांतनु कैवर्तराज की पालित पुत्री सत्यवती के अनुपम सौन्दर्य पर मुग्ध हो गये। कैवर्तराज ने उनसे कहा कि मैं अपनी पुत्री का विवाह आपसे तभी कर सकता हूँ, जब इसके गर्भ से उत्पन्न पुत्र को ही आप अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाने का वचन दें। महाराज शांतनु अपने शीलवान पुत्र देवव्रत के साथ अन्याय नहीं करना चाहते थे अतः उन्होंने कैवर्तराज की शर्त को अस्वीकार कर दिया, किंतु सत्यवती की आसक्ति और चिन्ता में वे उदास रहने लगे। जब भीष्म  को महाराज की चिन्ता और उदासी का कारण मालूम हुआ, तब इन्होंने कैवर्तराज के सामने जाकर प्रतिज्ञा की कि ‘आपकी कन्या से उत्पन्न पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी होगा।

          जब कैवर्तराज को इस पर भी संतोष नहीं हुआ तो इन्होंने आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन करने का दूसरा प्रण किया। देवताओं ने इस भीष्म प्रतिज्ञा को सुनकर आकाश से पुष्प वर्षा की और तभी से देवव्रत का नाम भीष्म प्रसिद्ध हुआ। इनके पिता ने इनपर प्रसन्न होकर इन्हें इच्छा-मृत्यु का दुर्लभ वर प्रदान किया। सत्यवती के गर्भ से महाराज शांतनु को चित्रांगद और विचित्र वीर्य नाम के दो पुत्र हुए। महाराज की मृत्यु के बाद चित्रांगद राजा बनाये गये, किंतु गन्धर्वों के साथ युद्ध में उनकी मृत्यु हो गयी। विचित्र वीर्य अभी बालक थे। उन्हें सिंहासन पर आसीन करके भीष्म जी राज्य का कार्य देखने लगे। विचित्र वीर्य के युवा होने पर उनके विवाह के लिये काशी राज की तीन कन्याओं का बल पूर्वक हरण करके भीष्म जी ने संसार को अपने अस्त्र कौशल का प्रथम परिचय दिया।

               काशी-नरेश की बड़ी कन्या अम्बा शल्य से प्रेम करती थी, अतः भीष्म ने उसे वापस भेज दिया; किंतु शल्य ने उसे स्वीकार नहीं किया। अम्बा ने अपनी दुर्दशा का कारण भीष्म को समझकर उनकी शिकायत परशुराम जी से की। परशुराम जी ने भीष्म से कहा कि ‘तुमने अम्बा का बल-पूर्वक अपहरण किया है, अतः तुम्हें इससे विवाह करना होगा, अन्यथा मुझसे युद्ध के लिये तैयार हो जाओ।’ परशुराम जी से भीष्म का इक्कीस दिनों तक भयानक युद्ध हुआ। अन्त में ऋषियों के कहने पर लोक-कल्याण के लिये परशुराम जी को ही युद्ध-विराम करना पड़ा। भीष्म अपने प्रण पर अटल रहे।

              महाभारत के युद्ध में भीष्म को कौरव पक्ष के प्रथम सेना नायक होने का गौरव प्राप्त हुआ। इस युद्ध में भगवान श्री कृष्ण ने शस्त्र न ग्रहण करने की प्रतिज्ञा की थी। एक दिन भीष्म पितामह ने भगवान को शस्त्र ग्रहण कराने की प्रतिज्ञा कर ली। इन्होंने अर्जुन को अपनी बाण-वर्षा से व्याकुल कर दिया। भक्त-वत्सल भगवान ने भक्त के प्राण की रक्षा के लिये अपनी प्रतिज्ञा को भंग कर दिया और रथ का टूटा हुआ पहिया लेकर भीष्म की ओर दौड़ पड़े। भीष्म पितामह मुग्ध हो गये भगवान‌ की इस भक्त वत्सलता पर। अठारह दिनों के युद्ध में दस दिनों तक अकेले घमासान युद्ध करके भीष्म ने पांडव-पक्ष को व्याकुल कर दिया और अन्त में श्रिखण्डी के माध्यम से अपनी मृत्यु का उपाय स्वयं बताकर महाभारत के इस अद्भुत योद्धा ने शर-शय्या पर शयन किया।

                    अपने वंश के नाश से दुखी पांडव अपने समस्त बन्धु- बान्धवों तथा भगवान श्रीकृष्ण को साथ ले कर कुरुक्षेत्र में भीष्म पितामह के पास गये। भीष्म जी शर शैया पर पड़े हुए अपने अन्त समय की प्रतीक्षा कर रहे थे। भरत वंश शिरोमणि भीष्म जी के दर्शन के लिये उस समय नारद, धौम्य, पर्वतमुनि, वेदव्यास, वृहदस्व, भारद्वाज, वशिष्ठ, त्रित, इन्द्रमद, परशुराम, गृत्समद, असित, गौतम, अत्रि, सुदर्शन, काक्षीवान्, विश्वामित्र, शुकदेव, कश्यप, अंगिरा आदि सभी ब्रह्मर्षि, देवर्षि तथा राजर्षि अपने शिष्यों के साथ उपस्थित हुए। भीष्म पितामह ने भी उन सभी ब्रह्मर्षियों, देवर्षियों तथा राजर्षियों का धर्म, देश व काल के अनुसार यथेष्ट सम्मान किया।

          सारे पांडव विनम्र भाव से भीष्म पितामह के पास जाकर बैठे। उन्हें देख कर भीष्म के नेत्रों से प्रेमाश्रु छलक उठे। उन्होंने कहा, "हे धर्मावतारों! अत्यन्त दुःख का विषय है कि आप लोगों को धर्म का आश्रय लेते हुए और भगवान श्रीकृष्ण की शरण में रहते हुए भी महान कष्ट सहने पड़े। बचपन में ही आपके पिता स्वर्गवासी हो गये, रानी कुन्ती ने बड़े कष्टों से आप लोगों को पाला। युवा होने पर दुर्योधन ने महान कष्ट दिया। परन्तु ये सारी घटनाएँ इन्हीं भगवान श्रीकृष्ण, जो अपने भक्तों को कष्ट में डाल कर उन्हें अपनी भक्ति देते हैं, की लीलाओं के कारण से ही हुए। जहाँ पर धर्मराज युधिष्ठिर, पवन पुत्र भीमसेन, गांडीवधारी अर्जुन और रक्षक के रूप में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हों फिर वहाँ विपत्तियाँ कैसे आ सकती हैं? किन्तु इन भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं को बड़े-बड़े ब्रह्मज्ञानी भी नहीं जान सकते। विश्व की सम्पूर्ण घटनाएँ ईश्वाराधीन हैं! अतः शोक और वेदना को त्याग कर निरीह प्रजा का पालन करो और सदा भगवान श्रीकृष्ण की शरण में रहो।

ये श्रीकृष्ण चन्द्र सर्वशक्तिमान साक्षात् ईश्वर हैं, अपनी माया से हम सब को मोहित करके यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं। इस गूढ़ तत्व को भगवान शंकर, देवर्षि नारद और भगवान कपिल ही जानते हैं। 

             तुम लोग तो इन्हें मामा का पुत्र, अपना भाई और हित ही मानते हो। तुमने इन्हें प्रेम पाश में बाँध कर अपना दूत, मन्त्री और यहाँ तक कि सारथी बना लिया है। इनसे अपने अतिथियों के चरण भी धुलवाये हैं। हे धर्मराज! ये समदर्शी होने पर भी अपने भक्तों पर विशेष कृपा करते हैं तभी यह मेरे अन्त समय में मुझे दर्शन देने कि लिये यहाँ पधारे हैं। जो भक्तजन भक्ति भाव से इनका स्मरण, कीर्तन करते हुए शरीर त्याग करते हैं, वे सम्पूर्ण कर्म बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं। मेरी यही कामना है कि इन्हीं के दर्शन करते हुए मैं अपना शरीर त्याग कर दूँ।

                       धर्मराज युधिष्ठिर ने शर शैया पर पड़े हुए भीष्म जी से सम्पूर्ण ब्रह्मर्षियों तथा देवर्षियों के सम्मुख धर्म के विषय में अनेक प्रश्न पूछे। तत्व ज्ञानी एवं धर्म वेत्ता भीष्म जी ने वर्णाश्रम, राग-वैराग्य, निवृति- प्रवृति आदि के संबंध में अनेक रहस्यमय भेद समझाये, उन्हें धर्म बताया तथा दान धर्म, राज धर्म, मोक्ष धर्म, स्त्री धर्म, भगवत धर्म, विविध धर्म आदि के विषय में विस्तार से चर्चा की। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के साधनों का भी उत्तम विधि से वर्णन किया।

                             इसके बाद पितामह भीष्म श्री कृष्ण को एकटक देखने लगे। उन्हें अपनी ओर इस प्रकार से देखता पाकर माधव के होंठों पर मुसकान छा गई। उन्होंने पितामह से अपनी ओर देखने का कारण पुछा। इसपर भीष्म पितामह बोले, हे माधव, हे दामोदर। आपने जो कुरुक्षेत्र में रुप धारण किया था, एक बार उस रुप के दर्शन करवा दो। भीष्म पितामह की बातें सुनकर माधव उलझन में बोले। पितामह....आप किस रुप की बातें करते हो? कृष्ण के प्रश्न सुनकर पितामह ठठाकर हंसे और बोले। हे देवकी नंदन वासुदेव, अब तो इतने कठोर न बनो। मुझे इस प्रकार से न उलझाओ कि मैं सब भूलने लगूं। मैं जानता हूं केशव, तुम्हारे विश्वरूप से भलीभांति परिचित हूं। इसलिए मुझे उस रुप को दिखा दो, जब क्रोध में लाल- पीले होकर तुम मुझे मारने के लिए दौड़े थे।

                      पितामह की बातों ने कन्हैया के चेहरे पर गंभीरता ला दी। आज उनका अनन्य भक्त उनसे जो कामना कर रहा था, वह अप्रतिम था। माधव तो उदास थे, उनका अनन्य भक्त आज धरा धाम से विदा ले रहा था। केशव तो अकारण ही करुणा वरुणालय है, उसमें भी अपने आश्रितों के तो प्राण धन है। वे अपने भक्तों का ध्यान उस धाय की तरह रखते है, जो अपने बच्चे के रोने से विकल हो जाती है। आज पितामह ने जो उनसे मांगा था, वह साधारण नहीं था, देय योग्य नहीं था। काश कि पितामह ने अमरता मांग ली होती, ब्रह्मा होने का वर मांग लिया होता। काश कि वे वैकुंठ भी मांग लेते, तो माधव संकोच नहीं करते। लेकिन उस भक्त पर क्रोधित कैसे हो, जो बावन दिनों तक वाणों की शैया पर लेटा हुआ है। बिना किसी प्रकार का आहार लिए सिर्फ इसलिये ही अपने प्राणों को रोका है कि सूर्य उतरायण हो जाए।

                   विश्वरूप परमेश्वर का हृदय तो क्रंदन कर रहा था। मुरारि की तो इच्छा हो रही थी कि पितामह के पास बैठ जाए, उनके सिर को गोद में ले-ले और जार-जार रोए। ऐसे में पितामह की इच्छा, माधव का हृदय कंपित हो गया और उन्हें वह प्रकरण भी याद हो आया, जब वे पितामह पर कुपित हो गए थे। बात थी महाभारत युद्ध की और युद्ध में दुर्योधन के अंठावन भाई वीर गति को प्राप्त हो चुके थे। ऐसे में दुर्योधन ने उलाहना दिया कि पितामह, आपके होते हुए भी मेरे भाई स्वर्ग सिधार रहे है, परन्तु पांडव तो जैसे अक्षय वर प्राप्त किए हुए है।

                        दुर्योधन की बातें सुनकर पितामह आहत हुए और उन्होंने ने प्रतिज्ञा कर ली कि कल युद्ध भूमि में एक पांडव को मार दूंगा। बस पांडव शिविर में हलचल होने लगी, बात ही भीष्म प्रतिज्ञा की। इस परिस्थिति में पांडव पाँचों भाई उदास हो गए। परन्तु रात के दो बजे अचानक ही कृष्ण ने द्रोपदी को उठाया और उसे सोलह श्रृंगार करने के लिए बोला। द्रोपदी पहले तो चौंकी, परन्तु माधव ने आदेश दिया था, तो नव विवाहिता की तरह श्रृंगार किया। इसके बाद श्री कृष्ण द्रोपदी को लेकर चल पड़े और भीष्म पितामह के शिविर के पास पहुंचे। वहां पहुंचने पर केशव ने द्रोपदी को समझाया कि तुम पितामह के चरणों में जाकर प्रणाम करो और वे जब तक आशीर्वाद नहीं दे, कुछ बोलना नहीं।

                           वही हुआ, द्रोपदी पितामह के शिविर में गई और उनके चरणों में झुक गई। ब्रह्म मुहूर्त था और पितामह नित्य क्रिया-क्रम से नृवित होकर श्री कृष्ण का ही ध्यान कर रहे थे। ऐसे में जैसे ही उन्होंने नव विवाहिता को देखा, अखण्ड सौभाग्य वती भव "बोल पड़े। फिर क्या था, द्रोपदी ने घूंघट हटाया और बोल पड़ी। पितामह.... आपने तो व्यर्थ ही सौभाग्य वती भव" कहा। क्योंकि कल रणभूमि में आप एक पांडव को मार देंगे।

                     सुनकर पितामह हंसने लगे, वे बोले। द्रोपदी! यह तुम नहीं कर सकती, तुम बोलो कि तुमको लेकर आने बाला छलिया कहां है। इतना कह कर पितामह आसन से उठे और बाहर आ गए। बाहर आकर उन्होंने देखा कि श्री कृष्ण के कांख में द्रोपदी" का पगरखा दबा हुआ है। श्री कृष्ण ने पितामह को देखा, तो हाथों को जोड़ कर मुस्करा पड़े। जबकि पितामह, वे बोले, हे माधव। आप ने जैसे मेरी प्रतिज्ञा तोड़ा है, वैसे ही आपकी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ी तो शांतनु सुत नहीं कहलाऊँ और सच वही हुआ। दूसरे दिन रणभूमि में पितामह उग्र हो गए।

                          आज उनके सामने कोई टिक ही नहीं पा रहा था। ऐसे में केशव ने रथ को उनके सामने किया। परन्तु यह क्या, पितामह ने ऐसे वाणों की वर्षा की कि अर्जुन धनुष भी संभाल नहीं पा रहे थे। अर्जुन का शरीर वाणों से बिंध गया और केशव भी इस वाणों के वर्षा से घायल हो गए। तब माधव ने क्रोधित होकर कहा, पार्थ, तुम क्या युद्ध करोगे, तुम्हें तो अपने सारथी की रक्षा भी करना नहीं आता। तुम देखो कि युद्ध कैसे होता है और बोल कर माधव रथ से कूद गए और टूटे रथ का पहिया उठाकर पितामह को मारने दौड़े। बस......पितामह ने धनुष रखकर दोनों हाथ जोड़ दिए और मुस्कराने लगे। सच ही है:-

पल-पल प्रभु का नियम बदलते देखा।

अपना मान टले-टल जाए, भक्त का मान न टलते देखा।

                    बस श्री कृष्ण को वही बात याद आ गई और उन्होंने अश्रु पूरित नयनों से पितामह को देखा। माधव के इस रुप को देखकर पितामह मुग्ध हो गए। उसी समय उत्तरायण सूर्य आ गये। अपनी मृत्यु का उत्तम समय जान कर भीष्म जी ने अपनी वाणी को संयम में कर के मन को सम्पूर्ण रागादि से हटा कर सच्चिदानंद भगवान श्रीकृष्ण में लगा दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अपना चतुर्भुज रूप धारण कर के दर्शन दिये। भीष्म जी ने श्रीकृष्ण की मोहिनी छवि पर अपने नेत्र एकटक लगा दिये और अपनी इन्द्रियों को केंद्रित कर के भगवान की इस प्रकार स्तुति करने लगे - "मैं अपने इस शुद्ध मन को देवकी नंदन भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र के चरणों में अर्पण करता हूँ। जो भगवान अकर्मा होते हुए भी अपनी लीला विलास के लिये योग माया द्वारा इस संसार की सृष्टि रच कर लीला करते हैं, जिनका श्यामवर्ण है, जिनका तेज करोड़ों सूर्यों के समान है, जो पीतांबर धारी हैं तथा चारों भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म कंठ में कौस्तुभ मणि और वक्षस्थल पर वनमाला धारण किए हुए हैं, ऐसे भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र के चरणों में मेरा मन समर्पित हो।

इस तरह से भीष्म पितामह ने मन, वचन एवं कर्म से भगवान के आत्म रूप का ध्यान किया और उसी में अपने आप को लीन कर दिया। देवताओं ने आकाश से पुष्प वर्षा की और दुंदुभि बजाये। मैं फिर से कहता हूं कि जनार्दन की शरणागति से बेहतर आश्रय कोई हो-ही नहीं सकता। भले ही हम संसार के धर्म को निभाए, परन्तु हमें नारायण के भजन से विमुख नहीं होना चाहिए। आगे मैं आपको भक्त कथा अमृत के संदर्भ में भगवान के कलयुग में हुए भक्तों की कथा बताऊँगा।

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हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण- कृष्ण हरे- हरे, हरे राम हरे राम, राम -राम हरे-हरे ।।

यह भगवान नाम संकीर्तन है और इसमें वह सूर-तान है कि कितनी भी बार सुनो, मन भरता नहीं। नाम संकीर्तन की अप्रतिम महिमा है और हमें जब भी समय मिले, ईश्वर के नामों का गान करना चाहिए। आगे मैं भक्त कथा अमृत के संदर्भ में श्री चैतन्य महा प्रभु एवं निताई महा प्रभु के बारे में चर्चा करूंगा। श्री चैतन्य महा प्रभु एवं निताई महा प्रभु और कोई नहीं, अपितु श्री कृष्ण एवं बलदाउ ही है। श्री राधा वल्लभ, श्री कुंज विहारी ने ही चैतन्य महा प्रभु का स्वरूप धारण किया है।

                       श्री दामोदर भगवान ने ही कलिकाल के प्रभाव से हम जीवों को उवारने के लिए कलियुग में चैतन्य स्वरूप धारण किया है। चैतन्य का शाब्दिक अर्थ ही होता है, जो कभी न मिटने बाला हो। कमल नयन नारायण ने हम जीवों पर कृपा करने के लिए, इस कलिकाल में भक्ति का मार्ग प्रशस्त करने के लिए ही चैतन्य रुप में अवतार लिया है। इसका एक दूसरा कारण भी है और वो है श्री राधा जू की विरह वेदना। सौ वर्षों तक बनवारी के विरह में श्री राधिका रानी जलती रही। उनके इसी विरह वेदना को समझने के लिए श्री माधव ने चैतन्य रुप धारण किया है। श्री चैतन्य महा प्रभु बांके बिहारी के विरह में जलते ही तो रहे है। उन्हीं चैतन्य महा प्रभु की दिव्य लीला कथा की आगे चर्चा करता हूं।

           श्री चैतन्य महा प्रभु का जन्म संवत् पंद्रह सौ बयालीस विक्रमी संवत की फालगुनी पूर्णिमा, होली के दिन बंगाल के नव द्वीप नगर में हुआ था । उनके पिता का नाम पंडित जगन्नाथ मिश्र और माता का नाम शची देवी था। पिता सिलहट के रहनेवाले थे। नव द्वीप में पढ़ने के लिए आये थे। बाद में वहीं बस गये। वहीं पर शची देवी से विवाह हुआ। एक के बाद एक करके उनके आठ कन्याएं पैदा हुईं और मरती गईं। फिर एक लड़का पैदा हुआ। भगवान की दया से वह बड़ा होने लगा। उसका नाम उन्होंने विश्वरूप रखा। विश्वरूप जब दस बरस का हुए तब उसके एक भाई और हुआ।

           माता-पिता की खुशी का ठिकाना न रहा। बुढ़ापे में एक और बालक को पाकर वे फूले नहीं समाये। कहते हैं, यह बालक तेरह महीने माता के पेट में रहा। उनकी कुंडली बनाते ही ज्योतिषी ने कह दिया था कि वह महापुरुष होगा। यही बालक आगे चलकर चैतन्य महा प्रभु हुए। बालक का नाम विश्वंभर रखा गया। प्यार से माता-पिता उसे 'निमाई' कहते। जिनके घर बच्चे मर जाते हैं, वे इसी तरह के बे सिर-पैर के नाम अपने बच्चों के रख देते हैं।

एक दिन की बात है। बालक के स्वभाव की जांच करने के लिए पिता ने उसके सामने खिलौने, रुपये और भगवत गीता रख दी। बोले, बेटा, इनमें से कोई-सी एक चीज़ उठा लो। बालक ने भगवत गीता उठा ली। पिता समझ गये कि आगे चलकर यह बालक भगवन का बड़ा भक्त होगा।

         एक बार निमाई काले नाग से खेलते हुए पाये गए। उनके चारों ओर सांप-कुंडली मार कर बैठा हुआ था ओर वह बड़े प्यार से उसके शरीर पर हाथ फेर रहे थे। लोगों को पक्का विश्वास हो गया कि हो-न-हो, इस बालक के शरीर में कोई महान आत्मा रहती है। बचपन में निमाई का पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता था। शैतान लड़कों के वह नेता थे। उन दिनों देश में छुआछूत ओर ऊंच-नीच का भेद बहुत था। वैष्णव और ब्राह्मण अपने या अपने घरवाले के ही हाथ का पका हुआ खाना खाते थे। एक दिन एक ब्राह्मण निमाई के यहां आया। जगन्नाथ मिश्र ने उसकी बड़ी आवभगत की। शची देवी ने उन्हें सीधा दिया, भोजन बनाने के लिए ।ब्राह्मण ने चौका लीप-पोत कर तैयार किया और खाना बनाया। खाने से पहले वह आंखें बन्द करके विष्णु भगवान को भोग लगाने लगा। तभी निमाई ने आकर उसकी थाली में से खाना-खाना शुरू कर दिया। यह देखकर ब्राह्मण चिल्लाने लगा।

              उनकी आवाज सुनते ही मिश्र जी और शची देवी दौड़े आये। मिश्र जी ने निमाई को पकड़ लिया और उन्हें पीटना ही चाहते थे कि ब्राह्मण ने छुड़ा दिया। मिश्र जी और शची देवी के आग्रह पर ब्राह्मण ने दूसरी बार भोजन तैयार किया। निमाई को अलग जाकर रस्सी से बांध दिया, पर भगवान को भोग लगाते समय फिर वही घटना घटी। निमाई रस्सी खोलकर आ गये। और थाली में से चावल खाने लगे। अब की बार मिश्र जी के गुस्से का ठिकाना न रहा। वह मारने को लपके, पर ब्राह्मण ने उन्हें रोक दिया। उसी समय पाठशाला से पढ़कर विश्वरूप आ गये। सब ने मिलकर ब्राह्मण से फिर खाना बनाने का आग्रह किया।

             ब्राह्मण मान गया। विश्वरूप और माता ने निमाई के रस्सी से बांधकर अपने पास बिठा लिया। कहते हैं, जब ब्राह्मण ने भोजन बनाकर भगवान विष्णु को भोग लगाया तो भगवान चतुर्भुज रूप में उसके सामने आ खड़े हुए और बोले, "तुम्हारे बुलाने पर मैं बालक के रूप में दो बार तुम्हारे पास आया, पर तुम पहचान नहीं पाये। अब जो इच्छा हो, मांगो। ब्राह्मण गदगद हो गया। बस, मुझे यही वर दीजिए कि आपकी मूर्ति सदा मेरे हृदय में बसी रहे।

            विष्णु भगवान ने कहा, ऐसा ही होगा।  ब्राह्मण ने बड़ी खुशी से भोजन किया। फिर वह निमाई को देखने गया। वह सो रहे थे। ब्राह्मण ने मन-ही-मन उन्हें प्रणाम किया और अपने घर लौट गया। जिसके घर से जो कुछ मिलता, निमाई वही खा लेते। पड़ोसिन प्यार से उन्हें खिलाती। कोई-कोई कहतीं, निमाई ब्राह्मण होकर हर किसी का छूआ खा लेते है। निमाई हंसकर कहते, हम तो बाल गोपाल हैं। हमारे लिए ऊंच-नीच क्या! तू खिला, हम तेरा खा लेंगे।

        निमाई जितने शरारती थे, बड़े भाई उतने ही गम्भीर और अपने विचारों की दुनिया में मस्त रहने वाले आदमी थे।  विश्वरूप की उम्र इस समय पंद्रह-सोलह साल की थी। माता-पिता विश्वरूप के विवाह की बात सोचने लगे, किन्तु उनकी लगन दूसरी ही ओर थी। मां-बाप ने जोर दिया तो मौका पाकर एक दिन वह रात को घर से निकल गये और संन्यासी हो गये। बहुत ढूंढ़ने पर भी उनका पता न चला। मिश्र जी और शची देवी के दुःख की सीमा न रही। निमाई पर भी इस घटना क बहुत असर पड़ा। वह भी अब गम्भीर रहने लगे।

                  निमाई का मन अब पढ़ने की ओर झुका, पर मिश्र जी को उसमें रस न था। वह सोचते थे कि एक लड़का तो खो ही गया, कहीं दूसरा भी हाथ से न चला जाये। वह निमाई को पढ़ते देखते तो बहुत नाराज होते। पर निमाई जब पढ़ने पर ही तुल थे, तो उन्हें कौन रोक सकता था! वह पिता से छिपकर पढ़ते। इस समय उनकी अवस्था ग्यारह वर्ष की थी। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने बहुत-कुछ पढ़ डाला। पिता अपने पुत्र की चतुराई की बातें सुन-सुनकर बहुत खुश होते। पर भाग्य के आगे किसका बस चलता है! एक दिन अचानक मिश्र जी को जोर का बुखार चढ़ा और कुछ ही दिनों में वह चल बसे।

               घर पर दुःख का पहाड़ टूट पड़ा। पर निमाई ने हिम्मत से काम लिया। अपने-आपको तो सम्हाला ही, मां को भी को भी धीरज बंधाया। दुखी मां का अब निमाई ही सहारा थे। पढ़ने से जो समय बचता, उसमें वह माता की खूब सेवा करते। व्याकरण के साथ-साथ अब वह और चीजें भी पढ़ने लगे। धीरे-धीरे उनके ज्ञान की चर्चा चारों ओर होने लगी। उनकी उम्र सोलह साल की हो चुकी थी। लोग उन्हें 'निमाई पंडित' कहने लगे।

                       निमाई के एक मित्र थे पं० रघुनाथ। वह उन दिनों एक पुस्तक लिख रहे थे। उनका विचार था कि इस पुस्तक को लिख लेने पर उस विषय का उनसे बड़ा विद्वान कोई नहीं होगा। तभी उन्हें पता लगा कि निमाई पंडित भी उसी विषय पर पुस्तक लिख रहे हैं। वह जानते थे कि निमाई इस विषय के पंडित हैं। वह उनके घर पहुंचे। रघुनाथ ने कहा, "सुना है, तुम न्याय पर कोई पुस्तक लिख रहे हो। हंसते हुए निमाई ने कहा, अजी, छोड़ो। तुम्हें किसी ने बहका दिया होगा। कहां मैं और कहां न्याय जैसा कठिन विषय! मन-बहलाव के लिए वैसे ही कुछ लिख रहा हूं। फिर भी मैं उसे सुनना चाहता हूं। रघुनाथ ने जोर देकर कहा।

                   जैसी तुम्हारी इच्छा! चलो, गंगाजी पर नाव में सैर करेंगे और पुस्तक भी सुनायेंगे। दोनों गंगा-घाट पर पहुंचे और नाव में बैठकर घूमने लगे। निमाई ने अपनी पुस्तक पढ़नी शुरू की। सुनकर रघुनाथजी रोने लग गये। निमाई ने हैरानी से पूछा, क्यों, क्या हुआ? रो क्यों रहे हो? निमाई, मेरी बरसों की मेहनत बेकार गई। तुम्हारी इस पुस्तक के सामने मेरी पुस्तक पर कौन ध्यान देगा? अपनी जिस पुस्तक पर मुझे इतना गुमान था, वह तो इसके सामने कुछ भी नहीं है।" रघुनाथ ने ठंडी सांस भरते हुए कहा। निमाई हंसने लगे। बोले, बस इतनी-सी बात के लिए परेशान हो। यह कहकर उन्होंने झट अपनी पुस्तक गंगाजी में फेंक दी। बोले, यह तो एक पुस्तक है। मित्र के लिए मैं अपने प्राण भी दे सकता हूं।

                उस दिन के बाद से फिर निमाई पाठशाला में पढ़ने नहीं गये। घर पर ही पिता और भाई की किताबों से पढ़ने लगे। कुछ दिन बाद उन्होंने लड़कों को पढ़ाने के लिए एक पाठशाला खोली। धीरे-धीरे उसमें बहुत-से विद्यार्थी हो गये। उनमें कई तो उम्र में उनसे बड़े थे। निमाई अपने विद्यार्थियों को खूब मेहनत से पढ़ाते और मित्र की तरह उनसे प्रेम भाव रखते। माता के बहुत दबाव डालने पर उन्होंने पंडित बल्लभाचार्य की पुत्री लक्ष्मी देवी से विवाह कर लिया। लक्ष्मी देवी को वह बचपन से ही जानते थे। इन्हीं दिनों नव द्वीप में एक पंडित आये। उन्हें अपने ज्ञान का बड़ा घमंड था, लेकिन निमाई के सामने उन्हें मुंह को खानी पड़ी। इससे निमाई का नाम और फैल गया। उनकी पाठशाला विद्यार्थियों से भरी रहती।

              कुछ दिनों के लिए निमाई पूर्वी बंगाल की यात्रा पर गये। इसी बीच घर पर मामूली बुखार से लक्ष्मी देवी की मृत्यु हो गई। बेचारी मां को उस समय धीरज बंधाने वाला कोई न था। लौटने पर निमाई को जब यह समाचार मिला तो वह  बहुत दुखी हुए। इसी तरह एक-दो बरस निकल गए। निमाई विद्वानों और मात की सेवा करते अपनी पाठशाला में छात्रों को पढ़ाते। अपनी मां का वह बहुत मान करते थे। माता की आज्ञा और आग्रह से उन्होंने पंडित सनातन मिश्र की कन्या विष्णुप्रिया से विवाह कर लिया। सूने घर में फिर चहल-पहल हो गई। विष्णुप्रिया के अच्छे स्वभाव के कारण धीरे-धीरे शची देवी और निमाई लक्ष्मी देवी के विछोह का दुःख भूल-सा गये।

              इस बार नव द्वीप से गया आने बालों में निमाई भी थे। वह वहां जाकर अपने पिता का श्राद्ध करना चाहते थे। गया में इस समय बड़ी भीड़ थी। माने हुए सिद्ध-महात्मा वहां आये हुए थे। वहीं पर संन्यासी ईश्वर पुरी से निमाई की भेंट हुई। नव द्वीप में एक बार वह पहले भी मिल चुके थे। पर तब के और अब के निमाई में बड़ा अन्तर था। भेंट होते ही निमाई ने श्रद्धा से उनके चरण पकड़ लिये। संन्यासी ने उन्हें प्यार से आशीर्वाद दिया। निमाई बोले, स्वामी! संसार की गति के साथ यह जीवन इसी तरह बीत जायेगा। अब हमें भी कृष्ण-भक्ति दीजिये। संन्यासी ने सरलता से कहा, आप तो स्वयं कृष्ण रूप हैं। पहुंचे हुए पंडित हैं, आपको कोई क्या दीक्षा देगा।

              निमाई के बहुत जोर देने पर पुरी स्वामी ने उन्हें दीक्षा दे- दी। ज्यों ही निमाई के कान में मंत्र फूंका गया, वह बेहोश हो गए और उसी हालत में चिल्लाने लगे, अरे प्यारे कृष्ण, तुम कहां हो? मुझे भी अपने पास बुला लो।" होश आने पर अपने साथियों से बोले, "भैया, तुम घर लौट जाओ। हम तो अब कृष्ण के पास वृंदावन जाते हैं। पर पुरी स्वामी ने उन्हें समझाकर कहा, वृंदावन बाद में जाना। पहले नव द्वीप में कृष्ण-भक्ति की गंगा बहाओ। बुराइयों में अपने यहां के लोगों का उद्धार करो। गुरु की आज्ञा से निमाई नव द्वीप लौट आये। बंगाल का यह इलाका उन दिनों गौड़ देश के नाम के नाम से प्रसिद्ध था। वहां पर मुसलमान बादशाह का राज्य था। राज्य की ओर से हर बड़े नगर में काजी की अदालत थी।

           गया से लौटने के बाद निमाई का मन पाठशाला में न लगा। वह हर समय कीर्तन में लीन रहने लगे। व्याकरण पढ़ाते-पढ़ाते श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन करने लगते, फिर कृष्ण-वियोग में फूट-फूटकर रोने लगते। धीरे-धीरे पाठशाला का अन्त हो गया। निमाई के कारण नव द्वीप के वैष्णवों में एक नई लहर आ गई। जोरों का कीर्तन होता। निमाई कीर्तन करते-करते नाचने लग जाते। उनके साथ-साथ और भी भक्त नाचने लगते। भक्तों की संख्या बढ़ने लगी। बिना जात-पात के भेद के सब लोग उनके कीर्तन में शामिल होते थे। लोग उनको भगवान कृष्ण का अवतार मानने लगे।

                      बंगाल में उन दिनों काली पूजा का बहुत प्रचार था। काली पूजा में बहुत-से पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी। निमाई पंडित इन बुरी बातों के विरोध में ही कृष्ण-भक्ति का संदेश लेकर हुए थे। निभाई के विरोधी उन्हें नीचा दिखाने के उपाय सोचते रहते थे। एक बार उन्होंने काजी से शिकायत की कि उनके कीर्तन से हम बड़े परेशान हैं। वह शोर मचाकर राज को सोने नहीं देते और कीर्तन से हम बड़े परेशान हैं। वह शोर मचाकर रात को सोने नहीं देते और कीर्तन के बहाने बुरे-बुरे काम करते हैं। साथ ही उन्होंने मुसलमानों को कृष्ण बना लिया है। यह सुनते ही काजी जल भुन गया। उसने फौरन आज्ञा दी कि कहीं भी कीर्तन नहीं होगा।

          भक्तों ने आकर जब काजी की यह आज्ञा सुनाई ते निमाई पंडित मुस्कराते हुए बोल, "घबराते क्यों हो? नगर में ढिंढोरा पिटवा दी कि मैं आज शहर के बाजारों में कीर्तन करता हुआ काजी के मकान के सामने जाऊंगा और वहां कीर्तन करूंगा। काजी साहब के उद्धार का समय आ गया है। इस मुनादी को सुनकर लोगों की खुशी की कोई सीमा न रही। लोगों ने नगर के बाजार सजाये। दूसरे मत को मानने वाले लोगों ने भी मकानों को सजाया। निमाई पंडित अपने भक्तों के साथ कीर्तन करते चले। “हरि बोल! हरि बोल!" की ध्वनि से आकाश गूंज उठा। जलूस कीर्तन करता हुआ बाजारों से गुजरने लगा। निमाई प्रभु-भक्ति में लीन होकर नृत्य कर रहे थे। उनकी आंखों से कृष्ण-विरह में आंसू बह रहे थे। उन्हें देखकर विरोध करने बालों के भी हृदय उनके चरणों में झुके जा रहे थे। जनता में काजी की आज्ञा के खिलाफ जोश पैदा होने लगा। जनता चिल्लाने लगी, काजी का मकान जला दो, काजी को मार दो। लोग गुस्से में भरे हुए काजी के मकान की ओर बढ़ने लगे।

          निमाई पंडित कीर्तन में मस्त थे। जब भक्तों ने उन्हें लोगों के जोश की बात बतलाई तो उन्होंने कीर्तन बन्द कर दिया और गुस्से से भरी हुई जनता के सामने जाकर बोले, काजी का बुरा करने वाला मेरा बुरा करेगा। मैं काजी को प्रेम से जीतना चाहता हूं, डर दिखाकर नहीं। इसलिए आप मेरे काम में रुकावट न डालें। काजी डर के मारे अपने घर में छिपकर बैठ गया था। निमाई ने उसके नौकरों से कहा, काजी साहब को मेरे आने की खबर दो। उनसे कहो कि डर की कोई बात नहीं। वह मुझ पर यकीन करें। मेरे होते हुए उनका बाल भी बांका न होगा। गांव के नाते काजी निमाई के मामा लगते थे। नौकरों के समझाने-बुझाने पर काजी बाहर आये।

           निमाई पंडित ने प्यार से कहा, मामा जी, भानजा मिलने आये और मामा मकान के द्वार बन्द करके अन्दर जा बैठे, यह भी कोई बात हुई! काजी ने कहा, मैं डर से नहीं, शर्म के मारे अन्दर जा बैठा था। मैं अपनी मदद के लिए सेना बुला सकता था, पर जब मैंने अपनी आंखों तुम्हारा कीर्तन देखा तो मैं खुद पागल हुआ जा रहा था। तुम तो नारायण रूप हो। तुम्हारे कीर्तन में रुकावट डालने का मुझे दुःख हैं। मैं लोगों के बहकावे में आ गया था। अब तुम खूब कीर्तन करो, तुम्हें कोई नहीं रोकेगा।

                            इस घटना से निमाई पंडित के हृदय में एक बड़ा परिवर्तन आने लगा। संन्यास लेने की इच्छा पैदा होने लगी। वह सोचते थे कि मेरे यश और वेश से डाह करने बालों को सीधे रास्ते पर लाने का केवल एक ही उपाय है और वह है त्याग। त्याग करके ही मैं दुनिया की भलाई में लग सकता हूं। यह इच्छा जब उन्होंने भक्तों, अपनी माता और पत्नी के बताई तो सब रोने लगे। सब ने उन्हें समझाने की कोशिश की, पर बेकार। निमाई पंडित चट्टान की तरह अटल थे। बाद में सब ने उनकी बात मान ली। एक रात को माता और पत्नी को सोता छोड़ वह संन्यास लेने के लिए घर से निकल पड़े। घर से निकलकर वह केशव भारती की कुटी पर पहुंचे और उनसे दीक्षा देने की प्रार्थना की। उस समय निमाई की उम्र चौबीस साल की थी।

                  केशव भारती ने उन्हें बहुत समझाया। कहा, अभी तुम्हारी उम्र छोटी है। तुम्हारे कोई बाल-बच्चा भी नहीं है। इस हालत में तुम्हारे लिए संन्यास लेना ठीक नहीं होगा। जाओ, घर लौट जाओ।  निमाई ने हाथ जोड़कर कहा, गुरुदेव, घर में रहते हुए मैं वह काम नहीं कर सकता, जो करना चाहता हूं। देश में नास्तिकता, हिंसा और वाम-मार्ग के कारण बड़ी बुरी-बुरी बातें फैल रही है। मैं अज्ञान के अंधेरे को दूर करना चाहता हूं। घूम-घूमकर कृष्ण भक्ति का सन्देश सारे देश को सुनाना चाहता हूं। जात-पात के बंधनों से लोगों को निकालना चाहता हूं। आप मुझ पर दया करें, मुझे दीक्षा दें।"

        केशव भारती कुछ सोचते हुए बोले, अच्छा, निमाई पंडित, एक शर्त पर मैं तुम्हें दीक्षा दे सकता हूं। तुम अपनी माता और पत्नी से आज्ञा ले आओ। निमाई ने कहा, "गुरुदेव उन दोनों ने मुझे आज्ञा दे दी है। मैं उनसे पहले ही पूछ चुका हूं। निमाई के बहुत कहने पर केशव भारती उन्हें दीक्षा देने को तैयार हो गए। इतने में निमाई को ढूंढते हुए नव द्वीप के अनेक भक्त वहां आ पहुंचे। वह बड़ा ही दिल को हिला देनेवाला दृश्य था। यह सुनकर कि एक युवक पत्नी और मां को छोड़कर संन्यासी बन रह है, आसपास के गांव के नर-नारी इकट्ठे हो गये। वे उन्हें मना करते और केशव भारती को गालियां देते। कोई भी नाई निमाई पंडित के सुन्दर बाल काटने को तैयार न होता।

             तब निमाई ने अपनी मधुर वाणी से सभी को शान्त किया। नाई ने उनके केश काटे, पर उसने कसम खा ली कि आगे से वह यह काम नहीं करेगा। वह कृष्ण-भक्त हो गया। निमाई पंडित अब चैतन्य कहलाने लगे। कृष्ण-भक्ति के गीत गाते हुए वह जनता के हृदय में भगवत भक्ति की भावना भरने लगे। उन दिनों अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग राजाओं के राज्य थे; किन्तु चैतन्य प्रभु इतने मशहूर थे कि उन्हें कहीं भी जाने की रोक-टोक न थी। एक यात्रा में उन्हें पता चला कि उनके बड़े भाई विश्वरूप दो वर्ष साधु रहकर मर गये।

                साधु बनने के बाद दो बार चैतन्य अपनी माता से मिले। वैसे माता के समाचार वह समय-समय पर अपने भक्तों से पूछते रहते थे। एक बार जब वह नव द्वीप गये, तो विष्णुप्रिया उनसे मिली। चैतन्य बोले, "देवी, इस संन्यासी के लिए क्या आज्ञा है? विष्णुप्रिया ने सिर झुकाकर कहा, "महाराज, मुझे आपके खड़ाऊं चाहिए।" चैतन्य प्रभु ने खड़ाऊं दे दिया। बाद में  विष्णुप्रिया ने कृष्ण-भक्ति की दीक्षा ले ली। एक बार चैतन्य प्रभु अकेले ही चेरानन्दी वन में जा रहे थे। उस वन में मशहूर डाकू नौरोजी रहता था। उसका नाम सुनकर लोग कांप उठते थे। चैतन्य को इस वन में से जाने के लिए लोगों ने बहुत मना किया, पर उनके मन में नौरोजी को सही रास्ते पर लाने की धुन समाई हुई थी। नौरोजी उनको देखते ही उनका भक्त हो गया और वह संन्यासी बनकर महा प्रभु के साथ रहने लगा। चैतन्य प्रभु अधिकतर जगन्नाथ पुरी में रहते थे और जगन्नाथ जी की मूर्ति के आगे खड़े होकर घंटों रोया करते थे।

               श्री  नित्यानंद जी  को  गौरांग महा प्रभु के  बड़े  भाई  का  दर्जा  प्राप्त  हुआ , दोनों के शरीर भिन्न होने पर भी एकात्म ही थे, ये महा प्रभु के प्रमुख पार्षद और संगी है, नित्यानंद जी ने हरि नाम संकीर्तन को अत्यधिक प्रचारित किया, ये गली-गली, गाँव-गाँव, घर- घर जाकर हरि नाम का प्रचार और प्रसार करते थे।

            नित्यानंद प्रभु चैतन्य महा प्रभु के प्रथम शिष्य थे। इन्हें निताई भी कहते हैं। इन्हीं के साथ अद्वैताचार्य महाराज भी महा प्रभु के आरंभिक शिष्यों में से एक थे। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। निमाई ने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर हरि नाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया। नित्यानंद जी का जन्म एक धार्मिक बंध्यगति ब्राह्मण, मुकुंद पंडित और उनकी पत्नी पद्मावती के यहां वर्तमान पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के एक चक्र या चाका नामक छोटे से ग्राम में हुआ था। इनके माता-पिता, वासुदेव रोहिणी थे तथा नित्यानंद बलराम के अवतार माने जाते हैं। बाल्यकाल में यह अन्य बालकों को लेकर कृष्ण लीला तथा राम लीला किया करते थे और स्वयं सब बालकों को कुल भूमिका बतलाते थे। इससे सभा को आश्चर्य होता था कि इस बालक ने यह सारी कथा कैसे जानी। विद्याध्यायन में भी यह अति तीव्र थे और इन्हें 'न्याय चुड़ा मणि' की पदवी मिली।

              यह जन्म से ही विरक्त थे। जब ये बारह वर्ष के ही थे, माध्व संप्रदाय के एक आचार्य लक्ष्मीपति इनके गृह पर पधारे तथा इनके माता पिता से इस बालक का माँगकर अपने साथ लिवा गए। नीति अपने माता-पिता के प्राण के समान प्रिय थे, एक क्षण के लिए भी इनसे विछोह इन्हें सहन नहीं था, जब सन्यासी ने वचन लेकर इनके पिता से इन्हें ही मांग लिया तो उनकी दशा जल विहीन मछली के जैसी हो गयी, उस समय राजा दशरथ की दशा स्मरण हो आती है, जब महर्षि विश्वामित्र श्री राम जी को मांगते है, तो दशरथ कहते है, देह प्राण ते प्रिय कछु नाहीं, सोउ मुनि देऊ निमिष एक माहि I 

  सब सूत प्रिय मोहि प्राण की नाई, राम देत नहीं बनत गोसाई  II 

                  जब गुरु वशिष्ठ ने समझाया तब कहीं उनका मोह भंग हुआ, और रामचंद्र जी को विश्वामित्र जी को सौंप दिया, ऐसे ही नित्यानंद के पिता जी की धर्मनिष्ठा ने उन्हें समझाया की धर्म के कार्य के लिए त्याग आवश्यक है, और उन्होंने अपनी धर्मपत्नी से सब बात कही तब वह भी अपने पति की विरुद्ध कुछ नहीं बोली और सहर्ष मान गयी, तब निताई को सन्यासी जी को सौंप दिया, उसके बाद नित्यानंद जी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा, मार्ग में उक्त संन्यासी ने इन्हें दीक्षा मंत्र दिया और इन्हें सारे देश में यात्रा करने का आदेश देकर स्वयं अंतर्हित हो गए। नित्यानंद ने कृष्ण कीर्तन करते हुए बीस वर्षों तक समग्र भारत की यात्राएँ कीं तथा वृंदावन पहुँच कर वहीं रहने लगे। जब श्री गौरांग का नव द्वीप में वैराग्य हुआ, यह भी नव द्वीप चले आए।

                         अवधुत नित्यानंद जी सीधे महा प्रभु के पास नहीं गए, वे पंडित नंदनाचार्य के घर ठहरे। इधर प्रभु को दिव्यदृष्टि से ज्ञान हो गया था कि नित्यानंद जी नव द्वीप पधार चुके है। तब वही भक्तों सहित पहुँच कर वे नित्यानंद प्रभु से मिले। प्रभु और नित्यानंद का मिलन संपन्न हुआ। नित्यानंद जी गौरांग प्रभु को एकटक लगाए देखे जा रहे थे। उनकी पलकें झपक ही नहीं रही थी, प्रेमाश्रु नयनों से निरंतर वह रहा  था। उन्मादित सी दशा हो गयी थी उनकी, किसी बात का होश-हवास उन्हें नहीं रहा। यह प्रभु और प्रभु प्रेमी का मिलन हो रहा था। अति आनंदित घड़ी थी, सभी भक्तजन इस प्रेम मिलन को देखकर भाव-विभोर हो रहे थे, प्रभु ने नित्यानंद को गले से लगा लिया, दोनों देव पुरुष ने एक दूसरे को आलिंगन किया।

             नित्यानंद जी बेसुध से दिखाई दे रहे थे, उनके पैर इधर-उधर पड़ रहे थे। कभी जोर-जोर से रुदन करते थे। हा कृष्ण ! हा कृष्ण कहकर करुण पुकार करते थे। उनकी दशा विचित्र हो गयी और वे महा प्रभु कि गोदी में गिर पड़े, महा प्रभु ने कहा, “श्री पाद, आज हम सब धन्य हो गए जो आपके दर्शन यहाँ हुए, आप कृपा करने के लिए हमें यहाँ घर बैठे ही दर्शन देने आ गए।

                     नित्यानंद, प्रभु कि वाणी सुनकर अधीरता से बोले, हमने श्री कृष्ण विरह में सभी तीर्थों की यात्राएं की, लेकिन सभी जगह सिंहासन प्रभु ही मिले। तब बहुत तलाशने पर मुझे पता लगा की प्रभु नव द्वीप में अवतरित हुए है, और नाम-संकीर्तन का प्रचार कर रहे है, वही जाकर आपको शांति मिलेगी। इसलिये ही मैं यहाँ पर आया हूँ, अब प्रभु की इच्छा है की दर्शन तो दिए किन्तु क्या वे अपनी शरण में रखते है या नहीं। इतना कह कर वे वही प्रभु के चरणों में लुढ़क गए, मानो अपना सर्वस्व प्रभु को अर्पण कर रहे हो। महा प्रभु उनकी वंदना कर रहे थे और नित्यानंद स्वामी महा प्रभु की। इस प्रकार दोनों महापुरुष एक दूसरे के आभार जता रहे थे और दोनों का अद्भुत मिलन देखकर सभी भक्त गण भी आश्चर्यचकित हो रहे थे। अद्भुत मिलन था यह, यहाँ नित्यानंद तथा श्री गौरांग दोनों नृत्य कीर्तन कर भक्ति का प्रचार करने लगे।

             इनका नृत्य कीर्तन देखकर जनता मुग्ध हो गई तथा 'जय निताई- जय गौर' कहने लगी। नित्यानंद के सन्यास ग्रहण करने का उल्लेख कहीं नहीं मिलता पर यह जो दंड कमंडल यात्राओं में साथ रखते थे उसे यही कहकर तोड़ फेंका कि हम अब पूर्णकाम हो गए। यह वैष्णव संन्यासी थे। नव द्वीप में ही इन्होंने दो दुष्ट ब्राह्मणों जगाई-मधाई का उद्धार किया, जो वहाँ के अत्याचारी कोतवाल थे। जब श्री गौरांग ने सन्यास ले लिया वह उनके साथ शांतिपुर होते जगन्नाथ जी गए। कुछ दिनों बाद श्री गौरांग ने इन्हें गृहस्थ धर्म पालन करने तथा बंगाल में कृष्ण भक्ति का प्रचार करने का आदेश दिया। यह गौड़ देश लौट आए। अंबिका नगर के सूर्य नाथ पंडित की दो पुत्रियों वसुधा देवी तथा जाह्नवी देवी से इन्होंने विवाह किया। इसके अनंतर खंडदह ग्राम में आकर बस गए और श्री श्यामसुंदर की सेवा स्थापित की। 

                        श्री चैतन्य महा प्रभु एवं श्री नित्यानंद महा प्रभु ने कलिकाल में धरा धाम पर अवतरित होकर हम मानवों के कल्याण के लिए भक्ति मार्ग की आधार शिला रखी। उन्होंने सनातन धर्म को पुनर्जीवित किया और मानव के लिए जीवन के उचित मानदंड की स्थापना की। उन्होंने गौड़ीय संप्रदाय की स्थापना की और भक्ति धारा के मार्ग को प्रशस्त किया। भक्ति एवं वैराग्य की महता बतलाई और नाम संकीर्तन का प्रचार-प्रसार किया। परन्तु हम मानव अपने मूल उद्देश्य को ही भूलने लगते है। मैं फिर से कहता हूं कि जरूरत नहीं कि हम संसार के सुखों का त्याग करें। परन्तु जीवन में एक नियम बना ले कि जब भी समय मिले, भगवान के नामों का उच्चारण करने लगे। हम चाहे जिस काम में लगे हो, कमल नयन श्री हरि के छवि को हृदय में बसाए रहे। आगे इसी संदर्भ में आपको श्री नरसिह मेहता के चरित की चर्चा करूंगा।

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नरसी मेहता महान कृष्ण भक्त थे. कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने उनको बावन बार साक्षात दर्शन दिए थे। नरसी मेहता का जन्म जूनागढ़, गुजरात में हुआ था. इनका सम्पूर्ण जीवन भजन कीर्तन और कृष्ण की भक्ति में बीता। इन्होंने भगवान कृष्ण की भक्ति में अपना सब कुछ दान कर दिया था भक्त नरसी मेहता की भक्ति के कारण श्री कृष्ण ने नानी बाई का मायरा भी भरा था। श्री नरसी मेहता भगवान की भक्ति में इस प्रकार डूबे थे कि उन्होंने अपनी पूरी संपत्ति संत सेवा में लगा दी थी। नरसी मेहता के बारे में विद्वानों एवं संतों की राय है कि वे राजा मुचकुंद ही थे। जब कालयवन को उन्होंने भस्म कर दिया, श्री कृष्ण ने उन्हें मोक्ष देना चाहा। परन्तु राजा ने मोक्ष नहीं ली और भगवान से भक्ति का वर मांगा।

                        नरसी मेहता बचपन से ही भक्ति में डूबे रहते थे. आगे चलकर उन्हें साधु संतों की संगत मिल गई जिसके कारण वे पूरे समय भजन कीर्तन किया करते थे। जिस कारण से घर वाले उनसे परेशान थे। घर के लोगों ने इनसे घर-गृहस्थी के कार्यों में समय देने के लिए कहा, किन्तु नरसी जी पर उसका कोई प्रभाव न पड़ा। एक दिन इनकी भौजाई ने इन्हें ताना मारते हुए कहा कि ऐसी भक्ति उमड़ी है तो भगवान से मिल कर क्यों नहीं आते? इस ताने ने नरसी पर जादू का कार्य किया। वह उसी क्षण घर छोड़ कर निकल पड़े और जूनागढ़ से कुछ दूर एक पुराने शिव मंदिर में बैठकर भगवान शंकर की उपासना करने लगे। उनकी उपासना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए जिसपर भगत नरसी ने भगवान शंकर से कृष्णजी के दर्शन करने की इच्छा प्रकट की। उनकी इच्छा की पूर्ति हेतु शिव इन्हें गोलोक ले गए जहाँ भगवान श्रीकृष्ण की रास लीला का दर्शन करवाये। भगत मेहता रास लीला देखते हुए इतने खो गए की मशाल से अपना हाथ जला बेठे। भगवान कृष्ण ने अपने स्पर्श से हाथ पहले जैसा कर दिया और नरसी जी को आशीर्वाद दिया।

           एक बार नरसी मेहता की जाति के लोगों ने उनसे कहा कि तुम अपने पिता का श्राद्ध करके सब को भोजन कराओ। नरसी जी ने भगवान श्री कृष्ण का स्मरण किया और देखते ही देखते सारी व्यवस्था हो गई। श्राद्ध के दिन कुछ घी कम पड़ गया और नरसी जी बर्तन लेकर बाजार से घी लाने के लिए गए। रास्ते में एक संत मंडली को इन्होंने भगवान नाम का संकीर्तन करते हुए देखा। नरसी जी भी उसमें शामिल हो गए। कीर्तन में वे इतने तल्लीन हो गए कि इन्हें घी ले जाने की सुध ही न रही। घर पर इनकी पत्नी इनकी प्रतीक्षा कर रही थी। भक्त वत्सल भगवान श्री कृष्ण ने नरसी का वेश बनाया और स्वयं घी लेकर उनके घर पहुंचे। ब्राह्मण भोज का कार्य सुचारु रूप से संपन्न हो गया। कीर्तन समाप्त होने पर काफी रात्रि बीत चुकी थी। नरसी जी सकुचाते हुए घी लेकर घर पहुंचे और पत्नी से विलंब के लिए क्षमा मांगने लगे। इनकी पत्नी ने कहा, ‘‘स्वामी! इसमें क्षमा मांगने की कौन-सी बात है? आप ही ने तो इसके पूर्व घी लाकर ब्राह्मणों को भोजन कराया है।

                      इसपर नरसी जी ने कहा, ‘‘भाग्यवान! तुम धन्य हो. वह मैं नहीं था, भगवान श्री कृष्ण थे। तुमने प्रभु का साक्षात दर्शन किया है. मैं तो साधु-मंडली में कीर्तन कर रहा था. कीर्तन बंद हो जाने पर घी लाने की याद आई और इसे लेकर आया हूं। यह सुन कर नरसी जी की पत्नी आश्चर्यचकित हो गईं और श्री कृष्ण को बारंबार प्रणाम करने लगी।

                एक बार उनके परोसियों ने नरसी जी की बेइज्जती करने के लिए कुछ तीर्थ यात्रियों को नरसी के घर भेज दिया और द्वारिका के किसी सेठ के उपर हुंडी लिखने के लिए कहा । नरसी के वहां कोई पहचान वाला ना होने पर भी साँवले  सेठ कर नाम पर चिट्टी लिखी। पहले तो नरसी जी ने मना करते हुए कहा की मैं तो गरीब आदमी हूँ, मेरे पहचान का कोई सेठ नहीं जो तुम्हें द्वारका में हुंडी दे देगा। पर जब साधु नहीं माने तो उन्होंने ने कागज ला कर पांच सौ रुपये की हुंडी द्वारका में देने के लिये लिख दी और देने वाले (टिका) का नाम सांवला शाह लिख दिया.

उस जमाने में हुंडी एक तरह के डिमांड ड्राफ्ट के जैसी होती थी। इससे रास्ते में धन के चोरी होने का खतरा कम हो जाता था। जिस स्थान के लिये हुंडी लिखी होती थी, उस स्थान पर जिस के नाम की हुंडी हो वह हुंडी लेने वाले को धन दे देता था।

          द्वारका नगरी में पहुँचने पर संतों ने सब जगह पता किया लेकिन कहीं भी सांवला शाह नहीं मिले। सब कहने लगे की अब यह हुंडी तुम नरसी से ही लेना। उधर नरसी जी ने उस धन का सामान लाकर भंडारा देना शुरू कर दिया। जब सारा भंडारा हो गाया तो अंत में एक वृद्ध संत भोजन के लिये आए। नरसी जी की पत्नी ने जो सारे बर्तन खाली किए और जो आटा बचा था उस की चार रोटियां बनाकर उस वृद्ध संत को खिलाई। जैसे ही उस संत ने रोटी खाई वैसे ही उधर द्वारका में भगवान ने सांवला शाह के रूप में प्रगट हो कर संतों को हुंडी दे दी।

                   भक्त नरसी की भगवान कृष्ण की भक्ति पर आधारित कथा है जिसमें ’मायरा”  अर्थात ’भात’ जो कि मामा या नाना द्वारा कन्या को उसकी शादी में दिया जाता है। नरसी के पास कुछ भी धन नहीं होने के कारण उनकी भक्ति की शक्ति से वह भात स्वयं भगवान श्री कृष्ण लेकर गए थे। लोचना बाई नानी बाई की पुत्री थी, नानी बाई नरसी जी की पुत्री थी और सु, सुलोचना बाई का विवाह जब तय हुआ था तब नानी बाई के ससुराल बालों ने यह सोचा कि नरसी एक गरीब व्यक्ति है। तो वह शादी के लिये भात नहीं भर पायेगा। उनको लगा कि अगर वह साधुओं की टोली को लेकर पहुँचे तो उनकी बहुत बदनामी हो जायेगी। इसलिये उन्होंने एक बहुत लम्बी सूची भात के सामान की बनाई उस सूची में करोड़ों का सामान लिख दिया गया। जिससे कि नरसी उस सूची को देखकर खुद ही न आये।

                    नरसी जी को निमंत्रण भेजा गया साथ ही मायरा भरने की सूची भी भेजी गई। निमंत्रण लेकर जब नाई नरसी मेहता के गांव पहुंचा। किसी ने भी उस नाई को नरसी मेहता का पता नहीं बताया। ऐसे में बांके बिहारी ने नाई का रुप धारण किया और उस नाई को नरसी मेहता का घर दिखा दिया। जब नाई नरसी मेहता के घर पहुंचा, नरसी मेहता ने उसका स्वागत किया और खुद नाई के भोजन का इंतजाम करने चले गए। इधर नारायण ने नरसी मेहता का रुप बनाया और सोने के पात्रों में नाई के लिए भोजन लेकर आए। जब नरसी मेहता लौटे, उन्होंने नाई से भोजन के लिए कहा।

                       परन्तु नाई तो तृप्त हो चुका था, अतः उसने मेहता जी को कहा कि आपने अभी तो मुझे भोजन कराया है। श्री नरसी मेहता को विश्वास दिलाने के लिए नाई ने सोने के पात्रों को भी दिखला दिया और बोला। आप ने ही तो बोला था कि भोजन कर लेना और इन बर्तनों को साथ ही ले जाना। नरसी मेहता भाव-विभोर हो गए। इसके बाद नाई ने उन्हें निमंत्रण पत्र दिया और उनसे विदा ली। नरसी मेहता ने निमंत्रण पत्र के साथ भात की लिस्ट देखी, वे हैरान हुए। परन्तु नरसी के पास केवल एक चीज़ थी वह थी श्री कृष्ण की भक्ति। 

                 आखिर वह दिन भी आ गया, जब उनको भात भरने के लिए जाना था। लेकिन जाए तो किस प्रकार से, ऐसे में उन्होंने एक मित्र से छकड़ा गाड़ी ली और दूसरे मित्र से बैल। फिर उनकी यात्रा प्रारंभ हुई। लेकिन यह क्या? बैलगाड़ी का जुआ टूट गया। परन्तु ठाकुर जी, अपने भक्त की दुविधा कैसे देखते? वे चट लोहार बन गए और बैलगाड़ी ठीक भी कर दी। इतना ही नहीं, ठाकुर जी गाड़ी हांकने के लिए भी बैठ गए और भक्तों के टोली संग चल पड़े। इसके बाद नरसी मेहता अपने संतों की टोली के साथ सुलोचना बाई को आशीर्वाद देने के लिये वहाँ पहुँच गये। उन्हें आता देख नानी बाई के ससुराल वाले भड़क गये और उनका अपमान करने लगे। अपने इस अपमान से नरसी जी व्यथित हो गये और रोते हुए श्री कृष्ण को याद करने लगे। नानी बाई भी अपने पिता के इस अपमान को बर्दाश्त नहीं कर पाई और आत्महत्या करने दौड़ पड़ी। परन्तु श्री कृष्ण ने नानी बाई को रोक दिया और उसे यह कहा कि कल वह स्वयं नरसी के साथ मायरा भरने के लिये आयेंगे।

               दूसरे दिन नानी बाई बड़ी ही उत्सुकता के साथ श्री कृष्ण और नरसी जी का इंतज़ार करने लगी और तभी सामने देखा कि नरसी जी और श्री कृष्ण जी रथ पर चले आ रहे है। उनके साथ लक्ष्मी देवी एवं कुबेर भी स्वरूप बदल कर आए थे।  उनके पीछे ऊँटों और घोड़ों की लम्बी कतार आ रही थी जिनमें सामान लदा हुआ था। दूर तक बैलगाड़ियाँ ही बैलगाड़ियाँ नज़र आ रही थी। ऐसा मायरा न अभी तक किसी ने देखा था न ही देखेगा।

                यह सब देखकर ससुराल वाले अपने किए पर पछताने लगे। इसके बाद तराजू लगाया गया और भात की लिस्ट निकाली गई। लिस्ट में जिस प्रकार से भात लिखी थी, भरा जाने लगा। आज ठाकुर जी के साथ भगवान श्री कुबेर भी मुनीम बनकर आए थे। इसलिये भात भरने के लिए वे ही आगे आए और समान तुलवाने लगे। सौ मन धनिया, सौ मन जीरा, सौ मन सौंफ। हर एक वस्तु को बहुत ही ज्यादा मात्रा में लिखा गया था। आधी रात तक भात ही भरी गई। भात भरी जा रही थी, इस दौरान नानी बाई के ससुराल वाले बांके बिहारी के मुनीम बाले रुप को ही देखकर सोचने लगे कि कौन है ये सेठ और ये क्यों नरसी जी की मदद कर रहा है? आखिरकार उन लोगों से नहीं रहा गया। उन्होंने जब ठाकुर जी से उनका परिचय जानना चाहा। बांके बिहारी ने जो जबाव दिया, वही इस कथा का सम्पूर्ण सार है तथा इस प्रसंग का केन्द्र भी है। इस उत्तर के बाद सारे प्रश्न अपने आप ही समाप्त हो जाते हैं। सांवला सेठ का उत्तर था ’मैं नरसी जी का सेवक हूँ इनका अधिकार चलता है मुझपर। जब कभी भी ये मुझे पुकारते हैं मैं दौड़ा चला आता हूँ इनके पास। जो ये चाहते हैं मैं वही करता हूँ। इनके कहे कार्य को पूर्ण करना ही मेरा कर्तव्य है।

               श्री नारायण के संग श्री लक्ष्मी जी भी आई हुई थी। जब भात भरी जा चुकी, नानी बाई के ससुराल बालों ने अर्जी की कि आप लोग भोजन कर लो। परन्तु हमारे ठाकुर तो भक्त वत्सल है, वे तो भाव के भूखे है। उन्होंने उन लोगों के आग्रह को ठुकरा दिया और रुष्ट होकर बोले। नहीं, हम लोग आपके यहां भोजन नहीं करेंगे। आपने मेरे नरसी मेहता का अपमान किया है और जहां मेरे भक्त का अपमान हो, मैं अन्न तो क्या, जल भी ग्रहण नहीं करता। इसके बाद लक्ष्मी जी, नारायण एवं कुबेर नरसी मेहता को लेकर चल पड़े।

                            रास्ते में श्री लक्ष्मी देवी ने नारायण की ओर देखकर कहा। प्रभु! अभी भी बहुत कुछ बचा हुआ रह गया। श्री हरि मुस्कराए, भक्त वत्सल प्रभु समझ गए कि देवी भी नरसी मेहता की सेवा करना चाहती है। वे भी चमत्कार दिखलाना चाहती है। बस भक्त वत्सल भगवान ने मौन स्वीकृति दी। फिर क्या था, श्री लक्ष्मी देवी ने पूरी रात कुबेर के साथ मिल कर उस नगर में सोने- मोहरों की बारिश करने लगी। ऐसे है ठाकुर जी के भक्त और बांके बिहारी भी ऐसे ही-है। वे भक्त वत्सल है, दीनों के नाथ है, जो उनकी शरणागति हो जाता है, नारायण उसके ही हो जाते है। इसी संदर्भ में आपको आगे श्री सूरदास जी की कथा का वर्णन करूंगा।

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आगे सूरदास जी के बारे में चर्चा करूंगा। भक्त सूरदास जी विक्रमी संवत सोलहवीं सदी के अंत में एक महान कवि हुए हैं, जिन्होंने श्री कृष्ण जी की भक्ति में दीवाने हो कर महाकाव्य ‘सूर-सागर’ की रचना की।

                        ऐसा अनुमान है कि आप का आगरा के निकट जन्म स्थान था। हिन्दी साहित्य में आपका श्रेष्ठ स्थान है। सूरदास जी के बारे में अलग-अलग मंतब्य है। कुछ इतिहास कारों के अनुसार जन्म के समय का नाम मदन मोहन था। जन्म से सूरदास अंधे नहीं थे, जवानी तक उनकी आंखें ठीक रहीं तथा उन्होंने विद्या ग्रहण किया। विद्या के साथ-साथ राग भी सीखा था। प्रकृति ने उनका गला लचकदार बनाया गया था तथा तन से बहुत सुन्दर स्वरूप थे। बचपन में ही उन्होंने विद्या आरम्भ कर दी थी, तथा चेतन बुद्धि के कारण आप को सफलता मिली। 

                 उस समय भारत में मुस्लिम शासक का राज था, जिसके कारण फारसी पढ़ाई जाने लगी थी। संस्कृत तथा फारसी पढ़ना ही उच्च विद्या समझा जाता था। मदन मोहन ने भी दोनों भाषाएं पढ़ीं तथा राग के सहारे नई कविताएं तथा गीत बना-बना कर पढ़ने लगे। उनके गले की लचक, रसीली आवाज़, जवानी, आंखों की चमक हर आते-जाते राही-वटोही तो मोहित करने लगी, उनका आदर होने लगा तथा उन्हें प्यार किया जाने लगा। जब किसी पुरुष के पास गुण तथा ज्ञान आ जाए, फिर उसको किसी बात की कमी नहीं रहती। गुण भी तो प्रभु की एक देन है, जिस पर प्रभु दयाल हुए उसी को कला का वरदान प्राप्त होता है| मदन मोहन कविताएं गाकर सुनाते तो लोग प्रेम से सुनते तथा उनको धन, वस्त्र तथा उत्तम वस्तुएं भी दे देते। इस तरह मदन मोहन की चर्चा तथा यश होने लगा, इसके साथ ही दिन बीतते गए। मदन मोहन कवि के नाम से पहचाना जाने लगे।

            मदन मोहन एक सुंदर नवयुवक थे तथा हर रोज़ सरोवर के किनारे जा बैठकर  गीत लिखते रहते थे। एक दिन ऐसा कौतुक हुआ, जिस ने उसके मन को मोह लिया। वह कौतुक यह था कि सरोवर के किनारे, एक सुन्दर नवयुवती, जिसका गुलाब की पत्तियों जैसा तन था। पतली धोती बांध कर वह सरोवर पर कपड़े धो रही थी। उस समय मदन मोहन का ध्यान उसकी तरफ चला गया, जैसे कि आंखों का कर्म होता है, सुन्दर वस्तुओं को देखना। सुन्दरता हर एक को आकर्षित करती है। उस सुन्दर युवती की सुन्दरता ने मदन मोहन को ऐसा आकर्षित किया कि वह कविता लिखने से रुक गए, तथा मन वृति एकाग्र करके उसकी तरफ देखने लगे। उनको इस तरह लग रहा था, जैसे यमुना किनारे राधिका स्नान करके बैठी हुई वस्त्र साफ करने के बहाने मोहन मुरली वाले का इंतजार कर रही थी। सूरदास जी अपलक उस सुंदरी को   देखते रहे।

       उस भाग्यशाली रूपवती ने भी मदन मोहन की तरफ देखा। कुछ लज्जा की, पर उठी तथा निकट हो कर कहने लगी – ‘आप मदन मोहन हैं? हां, मैं मदन मोहन कवि हूं और गीत लिखता हूं, एवं गीत गाता हूं। यहां गीत लिखने ही आया था, तो आप की तरफ देखा। क्यों? क्योंकि आप बहुत ही सुन्दर हो। आप! सुन्दरता की देवी-राधा सी प्रतीत हो रही हो। सूरदास जी मधुर शब्दों में बोले, फिर एक पल रुक कर बोले। हे सुंदरी, आप मेरी आंखों की तरफ देख सकोगी। हां, देख रही हूं। सुंदरी ने जबाव दिया। क्या दिखाई दे रहा है? सूरदास जी ने सीधा प्रश्न किया। जिस पर युवती ने कहा । मुझे अपना चेहरा आपकी आंखों में दिखाई दे रहा है।

                       इसपर सूरदास जी ने कहा। कल भी आप आओगी? आ जाऊंगी! जरूर आ जाऊंगी! ऐसा कह कर वह पीछे मुड़ी तथा सरोवर में स्नान करके घर को चली गई। अगले दिन वह फिर आई। सूरदास जी ने उसके सौंदर्य पर कविता लिखी, गाई तथा सुनाई। सूरदास जी के कला से प्रभावित होकर वह भी उनसे प्यार करने लगी। प्यार का सिलसिला इतना बढ़ा कि बदनामी का कारण बनने लगा। सूरदास जी के पिता नाराज हो गए और उन्होंने सूरदास जी को घर से निकाल दिया। घर से निकल कर सूरदास जी मंदिर में गए, परन्तु मन संतुष्ट न हुआ। फिर तो वे चलते-चलते मथुरा आ गए| वृंदावन में अकारण ही  घूमते रहे, परन्तु मन में बेचैनी रही। सूरदास जी उस नारी के सौंदर्य को न भूल सके।

            एक दिन वह मंदिर में गए। मंदिर में एक सुन्दर स्त्री जो शादीशुदा थी, उसके चेहरे की पद्मिनी सूरत देख कर सूरदास जी का मन मोहित हो गया। वह मंदिर से निकल कर घर को गई तो सूरदास जी भी उसके पीछे-पीछे चल दिए। वह चलते-चलते उसके घर के आगे जा खड़े हो गए| जब वह घर के अंदर गई तो सूरदास जी ने घर का दरवाज़ा खट-खटाया। उस स्त्री का पति बाहर आया। उसने सूरदास जी को देखा और उसकी संतों वाली सूरत पर वह बोले, बताओ महात्मा जी। मदन मोहन, अभी जो आई है, वह आप की भी कुछ लगती होगी। सूरदास जी ने पूछा, जबाव में उस स्त्री का पति बोला। हां, महात्मा जी! हुक्म करो क्या बात हुई?

               सूरदास जी बोले। हुआ कुछ नहीं बात यह है, परन्तु मैं विनती करना चाहता हूं। इसपर गृहस्वामी ने कहा। आओ! अंदर आओ बैठो, सेवा बताओ, जो कहोगे किया जाएगा। सब आप महात्मा पुरुषों की तो माया है।

इसपर सूरदास जी घर के अंदर चले गए। अंदर जा कर बैठे तो गृहस्वामी ने अपन पत्नी को बुलाया| वह आ कर बैठ गई, तो सूरदास जी ने कहा-हे भक्त जाने दो। आप दो सिलाईयां गर्म करके ले आओ। भगवान आप का भला करेगा। 

                 वे दंपति समझ न सके कि किया मामला है। स्त्री सिलाईयां गर्म करके जब ले आई। सूरदास ने सिलाईयां पकड़ ली तथा मन को कहने लगे, ‘देख लो! जी भर कर देख लो! फिर नहीं देखना। यह कह कर सिलाईयों को आंखों में चुभो लिया तथा सूरदास बन गए। वह स्त्री-पुरुष स्तब्ध तथा दुखी हुए। उन्होंने महीना भर मदन मोहन को घर रख कर सेवा की। आंखों के जख्म ठीक किए। तथा फिर सूरदास बन कर मदन मोहन वहां से चल पड़े।

            सूरदास जी गीत गाने लगे। वह इतना विख्यात हो गया कि दिल्ली के बादशाह के पास भी उनका यश जा पहुंचा। अपने अहलकारों द्वारा बादशाह ने सूरदास को अपने दरबार में बुला लिया। उसके गीत सुन कर वह इतना खुश हुआ कि सूरदास को एक कस्बे का हाकिम बना दिया। पर ईर्ष्या करने बालों ने बादशाह के पास चुगली करके फिर उसे बुला लिया और जेल में नज़रबंद कर दिया। सूरदास जेल में रहते थे। उन्होंने जब जेल के दरोगा से पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है? तो उसने कहा -‘तिमिर। यह सुन कर सूरदास बहुत हैरान हुए। कवि थे, ख्यालों की उड़ान में सोचा, ‘तिमिर…..मेरी आंखें नहीं मेरा जीवन तिमिर (अंधेर) में, बंदीखाना तिमिर (अंधेरा) तथा रक्षक भी तिमिर (अंधेर)। उन्होंने एक गीत की रचना की तथा उस गीत को बार-बार गाने लगे।

                 वह गीत जब बादशाह ने सुना तो खुश होकर सूरदास को आज़ाद कर दिया, तथा सूरदास दिल्ली जेल में से निकल कर मथुरा की तरफ चला गया। रास्ते में कुआं था, उसमें गिरे, पर बच गए तथा मथुरा-वृंदावन पहुंच गए। वहां भगवान कृष्ण का यश गाने लगे।

          सूरदास जी भगवान श्री कृष्ण जी की नगरी में पहुंचे। अनुभवी प्रकाश से उनकी आंखों के आगे श्री कृष्ण लीला आई। उन्होंने स्वामी ‘वल्लभाचार्य’ जी को गुरु माना तथा कहना मान कर ‘गऊ घाट’ बैठ कर ‘श्री मद भागवत’ को  कविता में उच्चारित करने लगे। उन्होंने एक आदमी लिखने के लिए रखा। सूरदास बोलते जाते तथा लिखने वाला लिखता रहता।

             सूर-सागर’ आप की एक अटल स्मृति है आपकी वाणी का एक शब्द है:-

हरि के संग बसे हरि लोक। ।तनु मनु अरपि सरबसु सभु अरपिओ अनद सहज धुनि झोक।।१।।

रहाउ ।।दरसनु पेखिभए निरबिखई पाए है सगले थोक।। आन बसतु सिउ काजुन कछुऐ सुंदर बदन अलोक ।।१।।सिआम सुंदर तजि आन जुचाहत जिउ कुसटी तनि जोक ।।

सूरदास मनु प्रभि हथि लीनो दीनो इहु परलोक ।।२।।

            परमार्थ-परमात्मा के भक्त परमात्मा के साथ ही रहते हैं। उन्होंने तो अपना सब कुछ हरि को अर्पण कर दिया है। वह सदा सहज प्यार तथा खुशी को अनुभव करते रहते हैं। भगवान श्री कृष्ण के दर्शनों ने उनको ऐसा संयम वाला बना दिया है कि उन्होंने इन्द्रियों पर काबू पा लिया है। जिसका फल यह हुआ कि भगवान ने उनको सब पदार्थ दिए हैं। जब प्रभु का खिलता मुख देखते हैं, तो किसी के दीदार की आवश्यकता नहीं रहती। परमात्मा को छोड़ कर जो लोग अन्य तरफ घूमते हैं, वे अपने तन-मन को नष्ट करते हैं। सूरदास जी कहते हैं, मैं तो उनका हूं, वह मेरे हैं।

               संत-वैष्णवों के अनुसार सूरदास जी का जन्म संभ्रांत परिवार में हुआ था। शारीरिक रुप से सुंदर और विद्वान सूरदास जी एक वेश्या के जाल में फंस गए। उन्होंने उस वेश्या के पीछे अपनी पूरी संपत्ति लूटा दी। उनकी ऐसी स्थिति थी कि उनका एक पल भी उस वेश्या के बिना नहीं बीतता था। ऐसे में एक दिन नारद जी आकाश मार्ग से ब्रह्मर्षि अत्री के साथ जा रहे थे। तभी उनकी नजर सूरदास पर पड़ी और दोनों चौंके। चौंकना भी स्वाभाविक ही था, क्योंकि सूरदास जिस कार्य के लिए आए थे, उसको छोड़ कर किस भ्रम में फंसे थे। दोनों ऋषियों ने मानव रुप धारण किया और वेश्या के पास जाकर समझाने लगे।

                   उन्होंने वेश्या को समझाया कि आप जिस पुरुष को अपने रुप-जाल में फंसाए हुए है, वो महान आत्मा है। उनका धरती पर किसी उद्देश्य से पदार्पण हुआ है, अतः आप उन्हें अपने रुप जाल से मुक्त करें। दोनों की बातें सुनकर उस वेश्या को ज्ञान हुआ। जब सूरदास जी शाम को उसके पास पहुंचे, वह वेश्या बोली। आप इस हाड़-मांस के शरीर पर जो इतने आसक्त है, जिसका पता नहीं कब नाश हो जाए। यह शरीर जो कि गंदगी का ढेर है, उसके बजाए श्री कृष्ण से नेह लगाया होता, आपका कल्याण हो गया होता।

                      उसी समय सूरदास जी ने अपनी आँखें सिलाईयों से फोड़ ली और अनजाने डगर पर चल पड़े। लेकिन यह क्या, वे तो कुएँ में गिर गए। ऐसे में श्री बांके बिहारी वहां आ गए और उन्होंने सूरदास जी को कुएँ से निकाला और हाथ छुटा कर जाने लगे। इसपर सूरदास जी ने बहुत ही सुंदर पद गाया:- बांह मचोड़े जात हो, अबल जान के मोए। हृदय से जाकर देख लो, मर्द बखानु तोए। बस बांके बिहारी प्रसन्न हो गए। उन्होंने सूरदास जी को फिर से आँखें दे-दी और अपने स्वरूप के दर्शन दिए। इन्होंने भगवान श्री कृष्ण के रूप-माधुर्य का छक कर पान किया। इन्होंने भगवान श्री कृष्ण से यह वर मांगा कि ‘‘मैंने जिन नेत्रों से आपका दर्शन किया, उनसे संसार के किसी अन्य व्यक्ति और वस्तु का दर्शन न करूं। सूरदास जी ने कहा कि प्रभु! अब आपको इस नयनों से देख लिया है। अब इन नयनों से संसार को नहीं देखना चाहता, इसलिये फिर से अंधा बना दे।

                        इसके बाद सूरदास जी ने भगवान से पुछा कि मैं कहां रहूं। भगवान ने कहा कि आप महा प्रभु वल्लभाचार्य के पास रहो। इसके बाद बांके बिहारी ने उनको महा प्रभु वल्लभाचार्य के आश्रम में पहुंचा दिया।

चौरासी वैष्णवों की वार्ता के अनुसार सूरदास जी सारस्वत ब्राह्मण थे। पुष्टि सम्प्रदायाचार्य महा प्रभु वल्लभाचार्य स्वामी अपनी ब्रज यात्रा के समय मथुरा में निवास कर रहे थे। वही सूरदास जी ने उनसे दीक्षा प्राप्त की। आचार्य वल्लभाचार्य के इष्टदेव श्रीनाथ जी के प्रति इनकी अपूर्व श्रद्धा भक्ति थी। आचार्य जी की कृपा से ये श्रीनाथ जी के प्रधान कीर्तन कार नियुक्त हुए। प्रतिदिन श्रीनाथ जी के दर्शन करके उन्हें नए-नए पद सुनाने में इन्हें बड़ा सुख मिलता था।

          श्री राधाकृष्ण के अनन्य अनुरागी भक्त सूरदास जी बड़े ही प्रेमी और त्यागी भक्त थे। इनकी मानस पूजा सिद्ध थी। श्री कृष्ण लीलाओं का सुंदर और सरस वर्णन करने में ये अद्वितीय थे। गुरु की आज्ञा से इन्होंने श्रीमद भागवत की कथा की पदों में रचना की। इनके द्वारा रचित ‘सूर सागर’ में श्रीमद भागवत के दशम स्कंध की कथा का अत्यंत सरस तथा मार्मिक चित्रण है। उसमें सवा लाख पद बताए जाते हैं। यद्यपि इस समय उतने पद नहीं मिलते हैं।  कहते हैं कि इनके साथ बराबर एक लेखक रहा करता था। इनके मुंह से जो भजन निकलते, उन्हें वह लिखता जाता था। कई अवसरों पर लेखक के अभाव में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं इनके लेखक का काम करते थे। 

             संगीत सम्राट तानसेन एक बार बादशाह अकबर के सामने भक्त सूरदास जी रचित एक अत्यंत सरस और भक्तिपूर्ण पद गा रहे थे। बादशाह पद की सरसता पर मुग्ध हो गए और उन्होंने सूरदास जी से स्वयं मिलने की इच्छा प्रकट की। वह तानसेन के साथ सूरदास जी से मिलने गए। उनके अनुनय विनय से प्रसन्न होकर सूरदास जी ने एक पद गाया, जिसका अभिप्राय था ‘‘हे मन! तुम मानव से प्रीति करो। संसार की नश्वरता में क्या रखा है। बादशाह उनकी अनुपम भक्ति से अत्यंत प्रभावित हुए। भक्त श्री सूरदास जी की उपासना साख्य भाव की थी। यहां तक कि इन्हें उद्धव का अवतार भी कहा जाता है। इनके पद बड़े ही अनूठे हैं। इन्हें पढऩे से आत्मा को वास्तविक सुख शांति और तृप्ति मिलती है। शृंगार और वात्सल्य का जैसा वर्णन भक्त श्री सूरदास जी की रचनाओं में मिलता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।

          अंतिम समय...आखिर सूर के जीवन की शाम ढल आई। सूर गोवर्धन से नीचे उतरकर घाटी में आ गए और आखिरी साँसे लेने लगे। उधर श्री वल्लभाचार्य जी के सुपुत्र गोस्वामी विटठलनाथ जी ने अपने सभी गुरु- भाइयों और शिष्यो के बीच डुगडुगी बजवा दी: भगवद् मार्ग का जहाज अब जाना चाहता है। जिसने आखिरी बार दर्शन करना है, कर लो। समाचार मिलते ही जनसमूह सूर की कुटिया तक उमड़ पड़ा। जिसने अपने कंठ की वीणा को झनका-झनका कर प्रभु-मिलन के गीत सुनाए, आज उसी से बिछड़ने की बेला थी। 

                 भक्त-हृदय भावुक हो उठे थे। बहुत संभालने पर भी सैकड़ो आंखों से रुलाइयाँ फूट रही थी। इसी बीच गुरूभाई चतुर्भुज दास जी ने सूर से एक प्रश्न किया: देव, एक जिज्ञासा है! शमन करें। सूरदास जी: कहो भाई। चतुर्भुज दास जी ने कहा। देव, आपने अपने जीवन भर कृष्ण-माधुरी छलकाया। कृष्ण प्रेम में पद रचे, कृष्ण-धुन में ही मंजीरे खनकाए। कृष्ण-कृष्ण करते-करते आप कृष्ण मय हो गए। परन्तु...इतना कहने के बाद चतुर्भुज दास जी रुक गए। तब सूरदास जी ने अधीर हो पुछा।  परन्तु क्या, चतुर्भुज..? चतुर्भुज दास जी ने हिम्मत करके पुछा। परन्तु आपने अपने और हम सब के गुरुदेव श्री वल्लभाचार्य जी के विषय में तो कुछ कहा ही नहीं। गुरु-महिमा में तो पद ही नहीं रचे।

                यह सुनकर सूर रसीली सी आवाज में बोले। अलग पद तो मैं तब रचता, जब मैं गुरु वर और कृष्ण में कोई भेद मानता। मेरी दृष्टि में तो स्वयं कृष्ण ही मुझे कृष्ण से मिलाने "वल्लभ" बनकर आए थे। ऐसा कहते ही सूर ने आखिरी सांस भरी और जीवन का आखिरी पद गुना। उनकी आंखें वल्लभ-मूर्ति के चरणों में गड़ी थी और वे कह रहे थे।

भरोसों द्रढ इन चरणन केरौ।

श्री वल्लभ नख चन्द्र छटा बिन-सब जग मांझ अन्धेरो ।साधन और नहीं या कलि में जासो होत निबेरौ ।

सूर कहा कहै द्विविध आंधरौ बिना मोल के चेरौ ।।

                  मुझे केवल एक आस, एक विश्वास, एक द्रढ भरोसा रहा-और वह इन गुरु चरणों का ही रहा। श्री वल्लभ न आते, तो सूर-सूर न होता। उनके श्री नखों की चाँदनी छटा के बिना मेरा सारा संसार घोर अंधेरे में समाया रहता। मेरे भाइयों, इस कलिकाल में पूर्ण गुरु के बिना कोई साधन, कोई चारा नहीं, जिसके द्वारा जीवन-नौका पार लग सके। सूर आज अंतिम घड़ी में कहता है कि, मेरे जीवन का बाहरी और भीतरी दोनों तरह का अंधेरा मेरे गुरु वल्लभ ने ही हरा। वरना मेरी क्या बिसात थी। मैं तो उनका बिना मोल का चेरा भर रहा।

                           यह है भगवान के भक्तों का हृदय और भगवान की भक्ति। भगवान भी तो अपने ऐसे भक्तों के ही अधीन रहते है। तो फिर हम मानव श्री हरि से विमुख रहना क्यों पसंद करते है? हम क्यों नहीं श्री पद्धनाभ को देखना चाहते? जबकि मुरली मनोहर, श्री राधा वल्लभ जू की छवि इतनी प्यारी है कि हमारे सारे दुःख का अवशोषण कर ले। मैं फिर कहता हूं कि हम संसार में रहें, संसार के भोगो को स्वीकार करें। परन्तु श्री दशरथ नंदन से स्नेह का धागा जरूर ही बांध ले। इसी संदर्भ में मैं आगे विठ्ठल नाथ जी के भक्ति की चर्चा करूंगा।

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 भगवान के भक्तों की कथा भी बहुत रसीली और जीवन का कल्याण करने बाली होती है। श्री हरि तो अपने मुख से ही कहते है-मोसो अधिक भक्त करी लेखो। यथार्थ, मुझसे ज्यादा मेरे भक्तों की पूजा करो। अपने श्री गुरुदेव जी की आराधना करो, संत जनो की सेवा करो। फिर देखो कि मैं तुम्हें सहज ही मिल जाऊँगा। भगवान के भक्त भगवान के ही आश्रित होते है। ऐसे में उनके हृदय के तार श्री हरि से सीधा जुड़ा होता है। बस जरूरत है, तो हमें उन सिद्ध संतों के कृपा कटाक्ष को पाने की। उनके हृदय के समीप होने की। फिर तो नारायण की कृपा दृष्टि होने में समय नहीं लगेगा और हम उनके करीबी हो जाएंगे। आज की चर्चा श्री माधव के ऐसे ही भक्त की है।

            श्री विट्ठलनाथ वल्लभ संप्रदाय के प्रवर्तक स्वामी  श्री वल्लभाचार्य जी के द्वितीय पुत्र थे। गुसाईं विट्ठलनाथ का जन्म काशी के निकट चरणाट ग्राम में पौष कृष्ण नवमी को संवत्‌ १५७२ (सन्‌ १५१५ ई.) में हुआ। इनका शैशव काशी तथा प्रयाग के निकट अड़ैल नामक स्थान में अपने नाना जी के पास व्यतीत हुआ। जब वे पांच वर्ष के ही थे, तो उन्होंने लाडू गोपाल जी को साक्षात कर लिया था। बात कुछ ऐसी थी, उनके नाना जी जमींदार थे और एक काम से उनको शहर के बाहर जाना था। घर में काम करने के लिए नौकरों की कमी नहीं थी। परन्तु नाना जी ने बाल विठ्ठल को समझाया कि वो लाडू गोपाल जी को भोजन कराने के बाद ही भोजन करेंगे। इसके बाद उनके नाना जी शहर से बाहर चले गए।

                      इधर बाल विठ्ठल ने अपने नाना जी की बात सत्य मान ली। जैसे ही भोजन तैयार होकर आया, उन्होंने लाडू गोपाल को भोजन करने के लिए कहा। परन्तु धातु की मूर्ति भी भोजन करती है क्या? जब लाडू गोपाल जी ने भोजन नहीं किया, बाल विठ्ठल ने सोचा कि शायद भोजन बनाने में कोई त्रुटि होगी, इसलिये लाडू गोपाल नहीं खा रहे। जब लाडू गोपाल नहीं खा रहे, तो विठ्ठल जी कैसे खाते। उन्होंने सारा भोजन गऊ के आगे डाल दिया। फिर दूसरे दिन उन्होंने अपनी निगरानी में भोजन बनवाया। परन्तु लाडू गोपाल जी को नहीं खाना-खाना था, सो नहीं खाया। उस दिन भी विठ्ठल जी का फांका ही गया। परन्तु तीसरे दिन, बाल विठ्ठल छुरी लेकर लाडू गोपाल के आगे बैठ गए। 

                     फिर भी जब लाडू गोपाल में किसी प्रकार की हरकत नहीं हुई। बाल विठ्ठल ने छुरी उठाया और बोले। लाडू गोपाल, तुम तो मुझसे खाते ही नहीं हो। ऐसे में तुम नानाजी से शिकायत करोगे, इसलिये मैं अपने आप को ही खतम कर लेता हूं। इतना कह कर बाल विठ्ठल ने उस छुरी को अपने ऊपर चलाना चाहा। श्री कृष्ण तो भक्त वत्सल है, वे किस प्रकार से ऐसा होने देते। भाव के भूखे कमल नयन नारायण अपने बाल रुप में प्रगट हो गए। उन्होंने एक हाथ से विठ्ठल जी के उस हाथ को पकड़ा, जिसमें छुरी थी। दूसरे हाथ से खाने लगे। खाने ही नहीं लगे, बल्कि माधव तो विठ्ठल को देखते जा रहे थे और हाथों से भोजन करते जा रहे थे। इस बीच विठ्ठल जी शिकायत करते रहे और जैसे ही बाल विठ्ठल की नजर भोजन थाल पर गई। उन्होंने गोपाल के हाथ पकड़ लिए। साथ ही बोले, लाडू गोपाल, तुम भी न, नहीं खाते थे तो आते ही नहीं थे और जब आए हो, मेरे हिस्से का भी खाए जा रहे हो। मैं भी तो भूखा हूं।

           बस फिर क्या था, लाडू गोपाल की दोनों समय भोग लगने लगी और वे प्रगट होकर भोजन करने लगे। जब एक सप्ताह बाद उनके नाना जी लौटे, बाल विठ्ठल से पुछा कि लाडू गोपाल को भोजन करा के भोजन किया न? जबाव में विठ्ठल ने सारी बात बतला दी। नाना जी को विश्वास ही नहीं हुआ, यह कैसे संभव हो सकता है? जरूर विठ्ठल बातें बना रहा है। इसलिये नाना जी ने बात टाल दी। यह बात बाल विठ्ठल को चुभ गई। शाम को उन्होंने ही भोग लगाया और जब लाडू गोपाल खाने लगे, बाल विठ्ठल ने नाना जी से कहा। नानाजी! आपको विश्वास नहीं होता न, देखो लाडू जी खा रहे है। नाना जी की सांसारिक आँखों से लाडू गोपाल कैसे दिखते? 

                   उन्होंने कहा कि कहा लाडू गोपाल खा रहे है? बस उनके प्रश्न को सुनकर बाल विठ्ठल ने उनका हाथ पकड़ा और दिखाने लगे। देखो लाडू गोपाल खा रहे है। बस चमत्कार हुआ! नाना जी ने देखा कि मोर मुकुट धारी बाल गोविंद को देखा। जो अपने नन्हे हाथों से खाए जा रहे थे। बस नाना जी अपने दोहित्र के चरणों में गिर पड़े। उनके आँखों से अश्रु धारा बहने लगी, वे रोने लगे बाल विठ्ठल के चरणों में। वे तो बस इतना ही बोलते जा रहे थे कि धन्य हो लल्ला! मैं तो धातु की प्रतिमा को ही पुजता रहा। परन्तु तुमने तो कृपा करके मुझे गोपाल से मिलवा दिया।

                  ऐसे विठ्ठल स्वामी, काशी में रहकर इन्होंने अपने शास्त्र गुरु श्री माधव सरस्वती से वेदांत आदि शास्त्रों का अध्ययन किया। अपने ज्येष्ठ भ्राता गोपीनाथ जी के अकाल कवलित हो जाने पर संवत्‌ १५९५ में संप्रदाय की गद्दी के स्वामी बनकर उसे नया रूप देने में लीन हो गए। धर्म प्रचार के लिए इन्होंने दो बार गुजरात की यात्रा की और अनेक धर्म प्रेमियों का वैष्णव धर्म में दीक्षित किया। वे तो बस अब धर्म के प्रचार में जूट गए।

          वल्लभ संप्रदाय को सुसंगठित एवं व्यवस्थित रूप देने में विट्ठलनाथ का विशेष योगदान है। श्रीनाथ जी के मंदिर में सेवा पूजा की नूतन विधि, वार्षिक उत्सव, व्रतोपवास आदि की व्यवस्था कर उन्हें अत्यंत आकर्षक बनाने का श्रेय इन्हीं को है। संगीत, साहित्य, कला आदि के सम्मिश्रण द्वारा इन्होंने भक्तों के लिए अद्भुत आकर्षण की सामग्री श्रीनाथ जी के मंदिर में जुटा दी थी। अपने पिता के चार शिष्य कुंभन दास, परमानंद दास तथा कृष्ण दास के साथ अपने चार शिष्य चतुर्भुज दास, गोविंद स्वामी, छीतस्वामी और नंद दास को मिलाकर इन्होंने अष्ट छाप की स्थापना की। इन्हीं आठ सखाओं के पद श्रीनाथ जी के मंदिर में सेवा पूजा के समय गाए जाते थे। इनके बारे में भक्त माल में नाभादास ने लिखा है।

राजभोज नित विविध रहत परिचर्या तत्पर।

सज्या भूषण बसन रुचिर रचना अपने करावल्लभसुत वल भजन के कलिजुग में द्वापर कियौ।

विठ्ठलनाथ ब्रज राज ज्यों लाल लड़ाय कै सुख लियौ।              स्वामी विट्ठल जी का उस समय समाजिक स्तर पर भी बहुत प्रभाव था:-अकबर बादशाह ने इनके अनुरोध से गोकुल में वानर, मयूर, गौ आदि के वध पर प्रतिबंध लगाया था और गोकुल की भूमि अपने फरमान से माफी में प्रदान की थी। विट्ठलनाथ जी के सात पुत्र थे जिन्हें गुसाईं जी ने सात स्थानों में भेजकर संप्रदाय की सात गद्दियाँ स्थापित कर दीं। अपनी संपत्ति का भी उन्होंने अपने जीवन काल में ही विभाजन कर दिया था। सात पुत्रों को पृथक‌ स्थानों पर भेजने से संप्रदाय का व्यापक रूप से प्रचार संभव हुआ। इनके चौथे पुत्र गुसाईं गोकुल नाथ ने चौरासी वैष्णव की वार्ता तथा दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता का प्रणयन किया। कुछ विद्वान‌ मानते हैं कि ये वार्ताएँ प्रारंभ में मौखिक रूप में कही गई थीं, बाद में इन्हें लिखित रूप मिला।

                   विट्ठलनाथ जी के लिखे ग्रंथों में अणु भाष्य, यमुनाष्टक, सुवोधिनी की टीका, विद्वन्मंडल, भक्ति निर्णय और शृंगाररसमंडन प्रसिद्ध हैं। शृंगाररसमंडन ग्रंथ द्वारा माधुर्य भक्ति की स्थापना में बहुत योग मिला। गोस्वामी गोकुल नाथ वल्लभ संप्रदाय की आचार्य परंपरा में वचनामृत पद्धति के यशस्वी प्रचारक के रूप में विख्यात हैं। आप गोस्वामी विट्ठलनाथ के चतुर्थ पुत्र थे। आपका जन्म संवत्‌ सोलह सौ आठ, मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी को प्रयाग के समीप अड़ैल में हुआ था। गोस्वामी विट्ठलनाथ के सातों पुत्रों में गोकुल नाथ सबसे अधिक मेधावी, प्रतिभाशाली, पंडित और वक्ता थे। सांप्रदायिक गूढ़ गहन सिद्धांतों का आपने विधिवत्‌ अध्ययन किया था और उनके मर्मोद्घाटन की विलक्षण शक्ति आपको प्राप्त हुई थी। 

        सांप्रदायिक सिद्धांतों के प्रचार और प्रसार में अपने पिता के समान आपका भी बहुत योगदान है। संस्कृत भाषा के साथ ही हिंदी काव्य और संगीत का भी आपने गोविंद स्वामी से अध्ययन किया था, जिसका उपयोग आपने प्रचार कार्य में किया। गोकुल नाथ की वैष्णव जगत‌ में ख्याति के विशेषतः दो कारण बताए जाते है। पहला कारण यह है कि इन्होंने अपने संप्रदाय के वैष्णव भक्तों के चारित्रिक दृष्टांतों द्वारा सांप्रदायिक उपदेश देने की लोकप्रिय प्रथा का प्रवर्तन किया। इन कथाओं को ही हिंदी साहित्य में 'वार्ता साहित्य' का नाम दिया गया है। आपकी प्रसिद्धि का दूसरा कारण सांप्रदायिक अनुश्रुतियों में 'माला प्रसंग' नाम से अभिहित किया जाता है। इस माला प्रसंग के कारण, कहा जाता है कि, गोकुल नाथ जी को वैष्णव जगत में सार्वदेशिक यश और सम्मान प्राप्त हुआ था। माला प्रसंग का संबंध एक ऐतिहासिक घटना से बताया जाता है। 

             संवत्‌ सोलह सौ चौहत्तर में बादशाह जहाँगीर की उज्जैन और मथुरा में एक वेदांती संन्यासी चिद्रूप से भेंट हुई जिसकी निस्पृह साधना से बादशाह मुग्ध था। वैष्णवों में प्रचलित है कि उसके कहने पर बादशाह ने वैष्णवों के वाह्य चिन्हों माला, कंठी और तिलक के धारण करने पर प्रतिबंध लगा दिया। इस निषेधाज्ञा को हटवाने में गोकुल नाथ जी ने सफलता पाई। यद्यपि इस वैष्णव परंपरा की पुष्टि ऐतिहासिक ग्रंथों से नहीं होती। जहाँगीर के 'आत्मचरित्र' अथवा फारसी की ऐतिहासिक सामग्री में इस घटना का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। परंतु गोकुल नाथ जी के विषय में यह मिलता है कि उन्होंने जहाँगीर से गोस्वामियों के लिए नि: शुल्क चरागाह प्राप्त किए थे। उनका यश और सम्मान पुष्टिमार्गी संत समाज में इससे अधिक बढ़ गया।

          चिद्रूप की लोकप्रियता कम हुई अथवा नहीं, किन्तु गोकुलनाथ जी का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता गया। आगे चलकर इसका स्पष्ट प्रभाव उनकी कृतियों पर पड़ा। वार्ता साहित्य के यशस्वी कृति कार एवं प्रचारक के रूप में उनका नाम बड़े आदर से लिया जाता है। वैष्णव मत के सिद्धांतों और भक्ति की सहानुभूति में उनकी लेखनी खूब चली। हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रंथों में गोकुल नाथ जी का उल्लेख उनके 'वार्ता साहित्य' के कारण हुआ है। गोकुल नाथ रचित दो वार्ता ग्रंथ प्राप्त हैं। पहला 'चौरासी वैष्णव की वार्ता' और दूसरा 'दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता'। इन दोनों की प्रामाणिकता और गोकुल नाथ रचित होने में विद्वानों में प्रारंभ से ही मतभेद रहा है। किंतु नवीनतम शोध और अनुशीलन से यह सिद्ध होता जा रहा है कि मूल वार्ताओं का कथन गोकुल नाथ ने ही किया था। इन वार्ताओं से वल्लभ संप्रदायी कवियों तथा वैष्णव भक्तों का परिचय प्राप्त करने में अत्यधिक सहायता प्राप्त हुई है। अतः इनको अप्रामाणिक कहकर उपेक्षणीय नहीं माना जा सकता।

           सांप्रदायिक परंपराओं के अध्ययन से यह विदित होता है कि गोकुल नाथ जी ने सर्वप्रथम श्री वल्लभाचार्य जी के शिष्यों-सेवकों का वृत्तांत मौखिक रूप से 'चौरासी वैष्णव की वार्ता' के रूप में कहा और तदनंतर अपने पिता श्री विट्ठलनाथ जी के शिष्यों-सेवकों का चरित्र 'दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता' में सुनाया, यद्यपि गोकुल नाथ ने स्वयं इन वार्ताओं को नहीं लिखा। लेखन और संपादन का कार्य बाद में होता रहा। विशेष रूप से गुसाईं हरि राय ने इनके संपादन का महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने 'भाव प्रकाश' लिखकर इन वार्ताओं का पल्लवन करते हुए इनमें विस्तार के साथ कतिपय समसामयिक घटनाओं का भी समावेश कर दिया। इन घटनाओं में औरंगजेब के आक्रमणों की बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। वस्तुतः हरि राय जी ने अपने काल की वर्तमानकालिक घटनाओं को भाव प्रकाशन तथा पल्लवन के समय जोड़ा था। मूल वार्ताओं में वे घटनाएँ नहीं थीं। परवर्ती संपादकों और लिपिकारों ने अनेक नवीन प्रसंग जोड़कर वार्ताओं को बहुत भ्रामक बना दिया है। 

         किंतु वार्ताओं की प्राचीनतम प्रतियों में उन घटनाओं का वर्णन न होने से अनेक भ्रांतियों का निराकरण हो जाता है। वार्ता साहित्य का हिंदी गद्य के क्रमिक विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है और अब उनका विधिवत्‌ मूल्यांकन होने लगा है। गोकुल नाथ जी रचित कुछ और ग्रंथ भी उपलब्ध हैं जिनमें 'वनयात्रा', 'नित्य-सेवा-प्रकार', 'बैठक चरित्र', 'घरू वार्ता', 'भावना', 'हास्य प्रसंग' आदि हैं।

गोकुल नाथ जी की ख्याति का एक कारण उनकी सांप्रदायिक विशेषता भी है। गोकुल नाथ के इष्टदेव का स्वरूप 'गोकुल नाथ' ही है और उसके विराजने का स्थान गोकुल है। इनके यहाँ स्वरूप सेवा के स्थान पर गद्दी को ही सर्वस्व मानकर पूजा जाता है। इनका सेवक समुदाय भंडूची वैष्णवों के नाम से प्रसिद्ध है। गोकुल नाथ जी वचनामृत द्वारा वल्लभ संप्रदाय का प्रचार करने वाले सबसे प्रमुख आचार्य थे।

                          भगवान के भक्तों ने नारायण की तो आराधना की ही-है। साथ ही उन्होंने जीवन के उच्चतम आदर्शों को भी स्थापित किया है। मानव का आचरण किस प्रकार का होना चाहिए, इसको रेखांकित किया है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि आप गृहस्थ ही रहो, परन्तु भगवान के चरणों का आश्रित रहो। मैं फिर कहता हूं कि हम चाहें किसी भी हाल में रहे, चाहे जो भी कर्म करें, परन्तु श्री राधा रमण, श्री सीता रमण का ध्यान करते रहे। इसी क्रम में आगे मैं श्री गोस्वामी श्री तुलसी दास जी का वृतांत चित्रण करूंगा।

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क्रमशः-


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