काव्य कुंजिका
अंकित था पटल पर प्रश्न चिन्ह।
उत्तर पाने की आशाओं में मौन।
क्षणिक भ्रांतियों में होकर गौण।
बनाये हुए विषम भाव का कोण।
क्षितिज पर फैला अंधकार अभी तक था।
दुविधा से ग्रसित मन में भार अभी तक था।।
अंधकार को बेधें, मिले वह दिव्य ज्योत।
फिर तो मन के भाव प्रवाह को रोकूं।
मिथ्या" के दंभ को ज्ञान कुंड में झोंकूँ।
बातें मन के विषम, समय के रहते टोकूं।
मन विस्मय के बस करता व्यवहार अभी तक था।
दुविधा से ग्रसित मन में, भार अभी तक था।।
कहता हूं सत्य, मंथन करके बैठा हूं।
शंका के उठे तरंग, निराधार नहीं है।
जीवन बदले जो रंग, मिलता सार नहीं है।
कहता हूं सत्य, बातें तिल का ताड़ नहीं है।
जीवन का रंगारंग चित्र, चमत्कार अभी तक था।
दुविधा से ग्रसित मन में, भार अभी तक था।।
बीती बातों का रसास्वाद, तीखा-कुछ मीठा।
कब से यूं ही अपनापन के संग बिलोने बैठा।
लगे स्याह परत से दाग, देखो धोने बैठा।
दुनिया के मेले का खेल, सपने संजोने बैठा।
मन का लोभ, इच्छाएँ अपरंपार अभी तक था।
दुविधा से ग्रसित मन में, भार अभी तक था।।
अंकित पटल पर प्रश्न चिन्ह, उत्तर कहीं मिले।
खोजा मैंने नवल ग्रंथ लिखने को मोर पंख।
चमत्कार भाव के वशीभूत लिखूं काव्य खण्ड।
उपमाओं में लिपटे शब्दों का लिखूं भाष्य रंग।
मन मंथन में उलझा, करता विचार अभी तक था।
दुविधा से ग्रसित मन में, भार अभी तक था।।