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मदन मोहन" मैत्रेय

@केशव

नाम-मदन मोहन "मैत्रेय पिता-श्री अमर नाथ ठाकुर रतनपुर अभिमान, दरभंगा, बिहार रतनपुर 847307 आप की पुस्तक कविता संग्रह "वैभव विलास-काव्य कुंज""भीगी पलकें" एवं "अरुणोदय" तथा उपन्यास "फेसबुक ट्रैजडी" "ओडिनरी किलर" एवं "तरुणा" पेपर बैक में प्रकाशित हो चुकी है। तथा आप अभी "भक्ति की धारा-एकाकार विश्वरुप स्वरुप" पर कार्य कर रहे हैं।

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काव्य कुंजिका

माना भी" रण तय भी था।

क्षणिक आवेश का भय भी था।

पथ पर अदृश्य विस्मय भी था।

चिंतन करने का बना विषय भी था।

किन्तु नियम यही जीवन का है।

पथ पर धीर बनूं-गंभीर बनूं।

गांडीव उठा लूं रण करने को।

मैं रणभूमि के गौरव को, वीर बनूं।।


द्वंद्व के वशीभूत होकर, होश न खोऊँ।

हो दुविधा का घात, किंचित नहीं रोऊँ।

मन पर भार, अब किंचित नहीं ढोऊँ।

रण ही तो है, कर लूं, क्यों व्याकुल होऊँ।

मानव हूं, यही पुरुषार्थ जीवन का है।

कर लूं जीवन संग्राम, रणधीर बनूं।

रण शंखनाद का स्वर करने को।

मैं रणभूमि के गौरव को, वीर बनूं।।

 

नहीं पालूं हृदय में पक्षपात के भाव।

जीवन धारा का समुचित बने बहाव।

रणभूमि में अधिक-न्यून का नहीं है लाभ।

थोड़ा जो भ्रम होगा, मिल जाएंगे घाव।

विचार जो शून्य से उठा, नूतन सा है।

रणभूमि का है संग्राम नहीं अधीर बनूं।

मानव नित समुचित व्यवहार करने को।

मैं रणभूमि के गौरव को, वीर बनूं।।



माना सत्य यही है, रण है तय पहले से।

संग्राम विषम है, बरछी-वाण चलेंगे।

घायल करने को, तीक्ष्ण कृपाण चलेंगे।

व्यथित क्यों होऊँ? यह जीवन संग्राम चलेंगे।

दुविधा को मथना चाहूं, भार विषम सा है।

उचित यही होगा इससे, मन शांत-गंभीर बनूं।

कौरव सा छाए संशय से लड़ने को।

मैं रणभूमि के गौरव को, वीर बनूं।।





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