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मदन मोहन" मैत्रेय

@केशव

नाम-मदन मोहन "मैत्रेय पिता-श्री अमर नाथ ठाकुर रतनपुर अभिमान, दरभंगा, बिहार रतनपुर 847307 आप की पुस्तक कविता संग्रह "वैभव विलास-काव्य कुंज""भीगी पलकें" एवं "अरुणोदय" तथा उपन्यास "फेसबुक ट्रैजडी" "ओडिनरी किलर" एवं "तरुणा" पेपर बैक में प्रकाशित हो चुकी है। तथा आप अभी "भक्ति की धारा-एकाकार विश्वरुप स्वरुप" पर कार्य कर रहे हैं।

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काव्य कुंजिका


है सत्य, मैं ने दुःख को देखा है।

सुस्वर राग खींचते तान में।

झोंपड़ियों के अधः-टूटे खंभों पर।

जीवन के पगडंडी पर, सूनसान में।

सिसकियां लेती हुई होंठों पर भी।

जर्जर ढांचा गत हड्डियों में बसा हुआ।।


देखा है मैंने अभी-अभी, बासी रोटी।

भले” कहीं भंडारे का हो बोल बाला।

यहां दो टुक रोटी के भी होते लाले।

पथराई आँखें और पांवों में छाले।

गड़ी हुई नजर फटी-फटी नोटों पर।

सिसकियां भी मंद, गले में फंसा हुआ।।


देखा है मैंने, बाजारों के बाहर" अंधकार।

लालसा भरी आंखें अपलक निहारती है।

अंतस हृदय में जैसे वेदना चिंघाड़ती है।

दो कौर निवाले को, दाता को पुकारती है।

मद्धिम सी आह भी उभड़ा अभी होंठों पर।

अदद मदद की चाह, आशाएँ में बसा हुआ।।


विचाराधीन भाव को मंथन करता हूं।

दुःख के रुप अलग है, पर वेदनाएँ एक सा।

कहीं चूल्हों में लकड़ियाँ अधजली सी है।

कहीं खाली पतीलियां खनक रही है, है भूख।

मरहम मांगता हो धीमे से लगाने को चोटों पर।

आजकल चर्चे है, उसे महंगाई डायन ने डंसा हुआ।।


त्वरित उपचार को लालायित, आँखों में आशा।

वेदनाएँ असह्य है कि" कही भूख बिलबिला रहा है।

बाजार के मोल-भाव ने हौसले तोड़ रखे हे।

कि" वह खाली पतीली को चूल्हों पर हिला रहा है।

दुःख तो आज है, वह कल ही बिका था वोटों पर।

आह मद्धिम सी निकली, बेबसी में बसा हुआ।।