काव्य कुंजिका
अरे ओ मन मेरे, भ्रमणा तेरो है।
जगत मिथ्या है, इसके झूठे नाते है।
अपना-पराया मोह जगत के होती बातें है।
मन मेरे केवल एक श्री हरि नाम तेरो है रे।
जपो हरि नाम जपो, श्री सीता राम जपो।
कलि प्रभाव से बचने को श्री घनश्याम जपो।।
जगत में फैला जो आशाओं का जाल।
वही तो बनता है जीवन का जंजाल।
दूजे विकट-विषम है चलता ये कलिकाल।
काम-क्रोध की ज्वाला नाचती अपने ताल।
इससे बचने को मन मेरे श्री राधे श्याम भजो।
कलि प्रभाव से बचने को श्री घनश्याम भजो।।
अरे मन मेरे, लोभ की चलती आँधी में।
जीवन नैया लेती अजब-गजब हिचकोले।
लालच भी तो आगे बढ मधुरी बातें बोले।
काम हृदय के कुंठित हो इधर-उधर को डोले।
इसका प्रभाव विषैला है, तुम राघव नाम जपो।
कलि प्रभाव से बचने को श्री घनश्याम भजो।।
अतिशय की आकांक्षा, तुम्हें भ्रमित करेंगे रे।
चाह हृदय में अंकुरित होगा, विष बेल बनेगा।
जीवन फिर तो दुविधाओं का जेल बनेगा।
भटकोगे जो जग के बस, जीवन खेल बनेगा।
अब संभलो पहले से ही, श्री हरि का नाप जपो।
कलि प्रभाव से बचने को, श्री घनश्याम भजो।।
मन मेरे अब भ्रमणा छोड़ो, अपना कोई नहीं रे।
यहां सभी ने लोभ की खिचड़ी रांध रखे है।
अपना पन का ताग खींचकर रिश्ते बांध रखे है।
फांस अधिक कस देने को, विष के फांद रखे है।
तुम मन रहो हरि नाम भरोसे, गिरिधर नाम जपो।
कलि प्रभाव से बचने को, श्री घनश्याम जपो।।